एहसान फरामोश
पता ही न चला कि दो वर्ष कब बीत गए | बीच बीच में अपने अनुभव के कारण संतोष अपनी बहन कुंती से आशीष के बारे में वार्तालाप कर लेती थी |
“मेरा बेटा कैसा है, बहन ?”
“स्वस्थ है |”
“अब तो बैठने लगा होगा ?”
“हाँ थोड़े सहारे से बैठ जाता है |“
“अब तो गुड़लियाँ चलने लगा होगा ?”
“हां कभी कभी उठने की कोशिश भी करता है |”
“एक साल का होने जा रहा है अब तो चलना शुरू कर देना चाहिए था | लगता है मेरे बेटे का ठीक से ख्याल नहीं रखती | कमजोरी होने से बच्चा चलने में देरी लगा देता है |”
“नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है | हाँ पर वह दाँत निकाल रहा है |”
“चलना सीखने से पहले दाँत निकालने से चलने में बाधा उत्पन्न हो जाती है | वैसे डाक्टर से पूछ कर आशीष को क्लकेरिया फास की गोलियां दे दिया कर | इससे बच्चे के दांत बिना किसी तकलीफ के निकल आते हैं |”
“ठीक है मैं कल ही डाक्टर से बात करके गोलियां मँगा लूंगी |”
“वैसे अपने बेटे को देखे बहुत दिन हो गए हैं | राघव जी तो आते ही रहते हैं कभी आशीष को लेकर तू भी साथ आजा |”
“देखूंगी जब भी मौक़ा मिला आ जाऊंगी |”
इस तरह की न जाने कितनी ही बातें दोनों बहनों के बीच होती रहती थी | एक बार राघव जी अपने आफिस के काम के सिलसिले में देहली आए थे | जैसा की वे अमूमन करते थे इस बार भी वे करण एवं संतोष से मिलने उनके घर चले गए | दुआ सलाम की औपचारिकता के बाद वे पलंग पर लेट गए | उनके चहरे से लग रहा था की वे बहुत थके हुए थे | मन में उत्तेजना के साथ साथ वे अन्दर से कुछ टूटे हुए से नजर आ रहे थे | उनकी हालत देखकर संतोष ने घबराकर पूछा, "भाई साहब क्या बात है तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"
“नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है |”
“फिर आपके मुख पर ऐसी निराशा क्यों झलक रही है ? आपका चेहरा तो हमेशा खिला रहता था |”
“लम्बे सफ़र से थोड़ा थक गया हूँ | आराम करने से अभी ठीक हो जाऊंगा |”
“मेरा बेटा आशीष कैसा है ?”
“ठीक है स्वस्थ है | अपनी मौसी की बहुत याद करता है |”
संतोष ने आशीष पर अपना हक जमाते हुए, “मुझे याद क्यों नहीं करेगा मेरा आशीष और सुनो मैं उसकी मौसी नहीं उसकी बड़ी माँ हूँ |”
संतोष की बात सुनकर राघव के चेहरे पर पल भर को मुस्कान बिखर गयी परन्तु जल्दी ही वह विचारों में मग्न हो गया |
“क्यों क्या बात है ? आपके मन में अवश्य कोई दुविधा है | बताओ न क्या है ?”
“राघव कुछ झिझकते हुए, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है |”
“तुम्हे मेरी कसम बताओ | सब कुशल तो है ?”
“हाँ हाँ सब कुशल मंगल है |”
“बात तो जरूर कुछ है” संतोष ने बड़ी अधीरता से पूछा, " मुझे अब सहन नहीं हो रहा इसलिए जल्दी से बता दो |"
राघव भी अब अधिक देर तक अपने मन की बात बताने को रोक नहीं पा रहा था अत: बोला, "अब हमने आशीष ........|" परन्तु वह अपनी पूरी बात बताने से हिचक गया |
संतोष ने कुछ विचलित होकर पूछा, "अब आपने आ..शी..ष............. के साथ क्या किया ? जल्दी बताओ मेरा दिल निकला जा रहा है ?”
“हमने आशीष के साथ कुछ नहीं किया |”
“फिर आशीष का नाम लेकर आप चुप क्यों हो गए ? जल्दी बताओ |”
“आप अधीर न हों | आशीष कुशल पूर्वक है”, फिर राघव जी जैसे बड़ी मुश्किल से बता पा रहे हों कहने लगे, “हमने उसका...उसका...उसका नाम आशीष से बदल कर सागर रख दिया है |”
राघव की बात सुनकर संतोष के मन का उफान, उतावलापन एवम जिज्ञासा एकदम शांत हो गई | संयम बरतते हुए वह बोली, "बस इतनी सी बात |"
“भाभी जी आपका सुझाया हुआ नाम आशीष वास्तव में ही हमारे लिए हर प्रकार से अशीष ही था | मुझे यह नाम बहुत पसन्द आया था |”
संतोष ने अपने मन की विशालता दर्शाते हुए जवाब दिया, “कोई बात नहीं, सागर तो उससे भी विशाल और सुन्दर नाम है |”
ऐसा लग रहा था कि राघव को अपने बेटे का नाम बदलने का बहुत अफसोस था तथा वह अपने को गुनाहगार जैसा समझ रहा था परंतु साथ में वह अपने को मजबूर महसूस कर रहा था | तभी तो वह बोला था, "मुझे पता नहीं क्यों ? कुंती को समय के साथ साथ आशीष नाम से चिढ़ होने लगी थी |"
करण जो चुपचाप अभी तक दोनों की बातें सुन रहा था राघव के दिल की तड़प तथा संतोष के मन की उदासीनता, जो उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी, को भाँपते हुए बोला, "मैं जानता हूँ कि कुंती का विचार क्यों बदला होगा |"
राघव तथा संतोष दोनों एक साथ करण का चेहरा ऐसे देखने लगे जैसे पूछना चाहते हों, " आप क्या तथा कैसे जानते हैं ?"
“जब घर वाले, आस पड़ौस के तथा तुम (संतोष) कुंती के लड़के को आशीष कहकर पुकारती होंगी तो इस नाम को सुनकर उसके दिमाग में हथौड़े से बजने शुरू हो जाते होंगे”, कहकर करण ने अपने साडू राघव की तरफ ऐसी निगाहों से देखा जैसे पूछ रहा हो, “क्यों है न यही बात ?”
राघव जी पहले तो कुछ सकुचाए तथा बात को टालने की कोशिश करने लगे परंतु करण के जोर देने पर उन्होने हामी भर ली कि ऐसा ही कुछ हुआ था | जब संतोष तथा करण ने मिल कर आग्रह किया कि वे पूरा किस्सा विस्तार से खुद ही सुना दें तो राघव ने कुछ ऐसा बयान किया |
एक दिन भाभी जी का फोन सुनने के बाद कुंती मेरे पास झल्लाई हुई आई तथा बोली, " देखो जी अब मुझे और सहन नहीं होता |"
मैं कुंती की बात का सिर पैर कुछ नहीं जानता था इसलिए पूछा, "क्या सहन नहीं होता ?"
“संतोष का यह आशीष आशीष चिल्लाना |”
“भाभी जी हमारे बेटे का नाम ही तो लेकर उसके बारे में कुछ पूछती होंगी | फिर इसमें चिल्लाना कहाँ से आ गया ?”
“मेरा त्तात्पर्य यह है कि उसकी ममत्व भरी आवाज से आशीष कहना मुझे बिलकुल नहीं भाता |”
मैनें कुंती को याद दिलाया, “उन्होने आशीष के होने में कितनी मुसीबतों का सामना किया था | उनके बिना सहयोग के क्या तुम यह दिन देख सकती थी |”
कुंती पहले की तरह झल्लाकर बोली, "मैं मानती हूँ कि उन्होने ऐसा किया है |"
“मेरे विचार से तो यह लड़का हमें उन्हीं की देन है |"
“मैं सब मानती हूँ |”
“भाभी जी तो हमेशा इसे अपना ही बेटा समझती हैं |”
“मैं जानती हूँ परंतु मैं अपने ममत्व के अलावा किसी और के ममत्व का रंग अपने बेटे पर चढ़वाने के सख्त खिलाफ हूँ | यह मेरी बर्दास्त से बाहर की बात है |”
“क्या मतलब ?”
“मतलब साफ है | जब भी मेरे लड़के को कोई आशीष के नाम से बुलाता है तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह मेरा अपना लड़का नहीं है | यह पराया है | यह हमारे पास किसी की देन है | मैं इससे निजात पाना चाहती हूँ | मैं भूल जाना चाहती हूँ कि इसे पाने के लिए मैनें क्या, कब, कैसे तथा किसने क्या किया था | मैं अपने लड़के का नाम बदल देना चाहती हूँ |”
“नाम बदलने से क्या होगा, सत्य को तुम कैसे नकार सकती हो ?”
“आशीष सुनने से मुझे हर बार इस बात का एहसास होता है कि यह मुझे किसी का अशीष है | नाम बदलने से केवल खाली समय में कभी कभार इस शब्द की याद आएगी | और समय के साथ साथ वह भी मध्यम पड़कर समाप्त हो जाएगी |”
राघव ने हताश होकर कहा, “भाभी जी कुंती के आगे मेरी एक न चली मैनें हारे हुए सैनिक की तरह हथियार डाल कर उसके सामने आत्म समर्पण कर दिया और आशीष का नाम बदलकर ‘सागर’ रख दिया | कुंती के कहने से मैनें अन्दाजा लगा लिया कि वह वास्तव में ही एक ठूँठ के समान है जिसके दिल में किसी के किए गए एहसान के बदले में कोई जाग्रति नहीं | इसीलिए कह रहा हूँ कि कुंती एहसान फरामोश है |”
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