Friday, September 25, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (पूत के पाँव)

 पूत के पाँव                               

बात उस समय की है जब कुंती कवांरी थी | उसके भाई संत राम का विवाह श्री राम सहाय के साथ बैंक में कार्यरत श्री ईशवरी प्रसाद जी की लड़की सुमन के साथ सम्पन्न हुआ था | सुमन एक पढी लिखी और स्वतंत्र विचारों वाली लड़की थी | वह यह सोचकर आई थी कि जैसे बाहर शहर में रहने वाले परिवारों में थोड़ा खुलापन होता है उसी प्रकार उसे अपनी ससुराल में भी मिलेगा | परंतु अपनी ससुराल में आकर जब उसको ऐसा कुछ नहीं मिला तो उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया | उसकी ससुराल थी तो शहर में परंतु उसमें रहने वालों की विचार धाराएँ गाँव में बसर करने वालों जैसी थी | घूंघट का प्रचलन, ऊपर से नीचे तक ढ़के दबे रहना, न खुलकर बोलना न हँसना ऐसे वातावरण में सुमन का मन बौखला उठा | वह अपने को पिंजरे में बन्द एक पक्षी के समान समझने लगी | कुसुम इस माहौल से थोड़े दिनों में ही ऊब गई और उसने आजाद होने की ठान ली | एक दिन रात को बिना किसी को बताए वह अपनी ससुराल छोड़कर अपने पीहर चली गई | 

इसके कुछ दिनों बाद संत राम के बड़े जीजा जी श्री सत्य प्रकाश जी के पिता जी श्री मुकंदी लाल जी ने अच्छनेरा के पास एक गाँव नगर-फतेहपुर सिकरी से संत राम का रिस्ता आशा नाम की लड़की से करवा दिया | कुसुम तो स्वछन्द विचारों वाली लड़की थी इसलिए उसका निर्वाह न हो पाया था | अब यह आशा ठेठ गँवार थी अर्थात घर वालों की आशा से ज्यादा सीधी सादी | एक तो नई दुलहन को ससुराल में अपने को स्थापित करने में समय लगता है ऊपर से अगर वह ठेठ गाँव से शहर में आई हो तो फिर राम जाने उसके साथ क्या क्या बितती है | मसलन मैदान जंगल, शौच, नहाना धोना, घर का रख रखाव, खाना पीना, पहनना ओढना, बोलना चालना यहाँ आशा के लिए सभी कुछ तो नयापन लिए था | इसलिए उसकी ससुराल में आशा के साथ भी उसकी आशाओं के विपरित व्यवहार होने लगा | एक बच्चे को जन्म देते देते वह इतनी तंग आ गई कि अपने चार महीने के नवजात शिशु को छोड़कर अपने पीहर चली गई | चार महीने बाद किसी तरह समझा बुझाकर आशा को वापिस लाया गया | 

इन चार महीनों में कुंती ने ही आशा के नवजात शिशु (अपने भतीजे अशोक ) का पालन पोषण किया था | वापिस ससुराल आने पर आशा को अशोक के प्रति अपनी ममता का गला घोंट कर बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी | क्योंकि कुंती ने, आशा के गिड़गिडाने व माफी माँगने के बावजूद, अशोक को हाथ भी नहीं लगाने दिया | आशा की ससुराल के सभी सदस्यों ने आशा का कोई साथ नहीं दिया बल्कि उसे सभी ने नकार सा दिया | अब कुंती ही अशोक को उठाती, उसे स्कूल के लिए तैयार करती, उसका नाशता बनाती, स्कूल छोड़कर आती तथा छुट्टी होने पर स्कूल से वापिस लाती | मतलब अब कुंती ही अशोक की सब कुछ बन चुकी थी | आशा यह सब कुछ होते देख अपना मन मसोश कर रह जाती थी | उसमें इतनी हिम्मत न थी कि किसी के सामने अपना मुँह खोल सकती |

समय व्यतीत होने लगा | कुंती की शादी हो गई | उस समय तक अशोक अपने जीवन के बारह बसंत देख चुका था | अब वह सब कुछ समझने लायक हो गया था | परंतु कुंती के व्यवहार ने अशोक के कोमल हृदय में बचपन से ही उसके अपने माता पिता के प्रति नफरत एवं घृणा के जो बीज बो दिए थे जो अब कुंती की विदाई पर उनके लिए नासूर बन चुके थे | कुंती के ससुराल जाने के बाद भी अशोक को, उसके सरंक्षकों ने, उसकी माता आशा के नजदीक फटकने नहीं दिया | 

इसमें अशोक के पिता संत राम की भी बहुत बड़ी कमी रही | वह पैसा खर्च करने के मामले में कमजोर नीयत का इंसान था | अशोक को अपने पास न रख कर वह उस पर होने वाले हर खर्चे से आजाद था | पैसों के पीछे उसने अपने प्रति अपने लड़के की घृणा का कोई मूल्य नहीं आँका | जिसके लिए आगे चलकर संत राम को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी |   

कुंती अपना मकान बनवा कर थाटी पुर(ग्वालियर) में रहने लगी थी | वह प्रत्येक दिन या तो स्वयं थाटी पुर से लशकर चली जाती या अशोक को थाटी पुर अपने पास बुला लेती थी | इस प्रकार शादी के बाद ग्वालियर बसने से एक बार फिर वह अशोक की सर्वेसर्वा बन गई थी | 

अशोक ने गरेजूएशन कर ली थी परंतु वह अभी कुछ काम नहीं करता था | कुंती ने तिगड़म भिडाकर अपने मकान के सामने ही अशोक की एक परचून की दुकान खुलवा दी जिससे उसका रोज का लशकर का आना जाना भी समाप्त हो जाए तथा अशोक  को अपनी छत्रछाया में भी रख सके | परंतु बदकिशमती से वह दुकान का कारोबार ढंग से न चला सका और अशोक को वह दुकान बन्द करनी पड़ी | दुकान को छोड़कर अशोक  ने ग्वालियर में ही नए खुले टाटा सर्विस सैंटर में नौकरी कर ली | 

टाटा सर्विस सैंटर में नौकरी करते हुए अशोक अप्रत्याशित तरक्की करने लगा | थोड़े ही दिनों की नौकरी में उसने इतना कमा लिया कि तानसेन नगर में उसने एक प्लाट भी ले लिया | उसकी तरक्की को देखते हुए उसकी शादी भी ग्वालियर की एक सम्भ्रांत परिवार की एक पढी लिखी लड़की माया से हो गई |  

माया का पति अशोक अपनी बुआ कुंती का अपने सिर पर हाथ फिरवाते फिरवाते उसके  लिए एक वफादार व पालतू प्राणी की तरह बन चुका था | अमूमन ऐसा होता है कि नई नवेली दुल्हन अपनी ससुराल में अपने पति के पद चिन्हों पर चलना पसन्द करती है | माया ने भी वही किया | उसने अशोक का अनुशरण करते हुए अपनी बुआ जी को अपना सर्वेसर्वा मान लिया | आशा जो अभी तक अशोक के लिए एक बेगानी थी तथा जो न जाने अपने मन में कितनी आशाएँ और सपने संजोए थी कि अशोक की शादी के बाद उसकी दुल्हन आकर उसके लड़के के दिल से उसके प्रति भरी सारी गल्त धारणाओं को समाप्त करके उसके परिवार में मंगल मय वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होगी |  आशा की आशाएँ केवल आशा ही होकर रह गई |  माया भी जीवन की दौड़ में कुंती के प्रभाव से अछूती न रह सकी | वह अपनी सास तथा अपनी ददिया सास का कोई सम्मान न करते हुए उनसे लड़ झगड़ कर अलग हो गई तथा एक तरह से अपनी बुआ जी के सामने उसने भी अपने घुटने टेक दिए |

अशोक ने अपने दादा जी, श्री राम सहाय जी, के मकान की पहली मंजिल को अपना आशियाना बना लिया | उसका पिता संत राम, अपने पिता के साथ अनबन चलते, अपनी पत्नि के साथ ग्वालियर की शिवाजी कालोनी में किराए पर रहता था | 

राम सहाय जी ने अपनी नौकरी के दौरान अपने परिवार का लालन पालन बहुत सुन्दर ढंग से किया | भिंड जैसे बीहड़ इलाके में नौकरी करते हुए भी उन्होने अपने बच्चों को किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होने दी थी |

जब कुंती की शादी हुई थी तो राम सहाय जी अपनी सैंट्रल बैंक की नौकरी से रिटायर हो चुके थे | वे बहुत ही सरल, सादा तथा मृदुभाषी इंसान थे | अपने जीवन के हर पहलू को वे बहुत सोच समझ कर अपने ही अन्दाज में जीते थे | अपने रिटायरमैंट से पहले ही उन्होने अपना एक ध्येय नियुक्त कर लिया था कि उन्हें आगे अपनी जिन्दगी का सफर कैसे तय करना है | अपनी लड़की की शादी के लिए होने वाले खर्च को भाँप कर उसका पैसा अलग रख दिया था |  

राम सहाय जी ज्योतिष विद्या में कुछ ज्यादा ही विशवास रखते थे | ज्योतिषियों ने उनकी आयु पचहत्तर वर्ष आँकी थी उसी के अनुसार उन्होने अपनी बाकी की जमा पूँजी को हर महीने के खर्च के अनुसार बाँट कर रख दिया था | अपनी आयु को निशचित पचहत्तर वर्ष मान वे आनन्द पूर्वक अपना जीवन बिता रहे थे |

परंतु वे यहाँ चूक गए | वे पचहत्तर वर्ष पार कर गए | ज्योतिषों पर अंध विशवास करने के कारण उनकी नकदी ने जवाब देना शुरू कर दिया था | अब आगे अपना खर्चा चलाने के लिए उनके पास केवल एक ही विकल्प रह गया था कि वे अपने गहने बेच दें जो वे अपने बच्चो के भविष्य के लिए सुरक्षित छोड़ देना चाहते थे | इस समस्या के समाधान के लिए उन्होने अपने मंझले दामाद करण को सन्देशा भेज कर बुला लिया |

“कुंवर जी मेरे सामने एक गम्भीर समस्या आ गई है |” 

“बाबू जी वह समस्या क्या है ?”

“रूपयों की | अपने घर के खर्चे की |”

“क्यों अचानक ऐसी क्या बात हो गई ?”

“यह अचानक नहीं आई है | यह मेरी गल्त धारणा के कारण आई है |”  

करण आश्चर्य से, "गल्त धारणा ?" 

“हाँ”, असल में मैनें ज्योतिषियों के चक्कर में पड़कर अपनी उम्र महज पचहत्तर वर्ष आँक कर उसी अनुसार अपनी सारी पूंजी खर्च कर डाली | परंतु अब सतहत्तर वर्ष पार करने पर भी मैं जिन्दा हूँ |

“आपने........?” 

करण कुछ पूछना चाहता था कि उसके ससुर ने उसका आशय समझते हुए उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, "बस इस बारे में और कुछ मत पूछना | मैं खुद शर्मिन्दा हूँ कि ज्योतिष को पत्थर की लकीर क्यों मान बैठा |"  

करण ने अपनापन दर्शाते हुए कहा, "अगर आप एतराज न मानों तो आपका खर्चा मैं उठाने को तैयार हूँ ?”

“इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद परंतु मैं ऐसा कभी नहीं चाहूँगा |”

“फिर आप चाहते क्या हैं ?” 

“फिलहाल मैनें अपनी एक सोने की रामनौमी का हार बेच दिया है तथा अपने खर्चे का इंतजाम कर लिया है | परंतु मुझे लगता है कि इससे भी काम नहीं चलेगा | मेरी सेहत के हिसाब से मैं अभी मरने वाला नहीं हूँ | (अपने चेहरे पर एक मुस्कान लाते हुए वे आगे बोले) इसलिए मुझे ये रूपये भी कम पड़ते नजर आ रहे हैं |” 

“तो फिर आपका क्या विचार है ?”

“अब मैं चाहता हूँ कि मेरे पास जो एक सोने की तगड़ी है उसे भी बेच दूँ | (फिर थोड़ा सोचकर) तगड़ी शुद्ध सोने की है | सुनार से मोल भाव लगवा कर उसे आप ले लो |”

“बाबू जी यह ठीक नहीं रहेगा | सभी मुझ पर शक करेंगे |”

“मैं आपको लिखकर दे दूँगा कि मैनें वह तगड़ी बेची है |” 

“सो तो आपकी बात ठीक है परंतु सबसे पहला हक इस पर संत राम का है | वैसे इस बारे में एक बार सभी को बताना ठीक रहेगा |”   

“जैसी आपकी मर्जी | मुझे तो बेचनी ही है |”

इसके बाद करण ने संत राम, सत्य प्रकाश, राघव एवं अशोक से उस तगड़ी को खरीदने का आग्रह किया परंतु कोई राजी नहीं हुआ तो अपने ससुर की मनोइच्छा की पूर्ति करते हुए वह तगड़ी 45000/- रूपये में खुद खरीद ली | 

“बाबू जी अब मेरी एक सलाह और मान लो |”

“वह क्या है ?”

“अब आपके पास जितना भी पैसा है वह बैंक में जमा करा दो |” 

“कुवंर साहब अब इसकी क्या जरूरत है ?”

“बाबू जी समय का क्या भरोसा कि किस करवट बैठता है | इसलिए पैसा खर्च करने की बजाय उसके ब्याज से काम चलाना ही अक्लबन्दी है |”

और इस प्रकार बैंक में जमा पूंजी के ब्याज से राम सहाय जी का खर्चा सुचारू रूप से चलने लगा | 

अपने दादा जी का जीवन निर्वाह सुख शांती से चलता देख अशोक को खलने लगा | उसने मकान का पानी, बिजली तथा टूट फूट का खर्चा देना बन्द कर दिया | अशोक की अपने माँ बाप से तो बनती न थी अतः समस्या समाधान के लिए करण को ही हस्तक्षेप करना पड़ा | 

करण ने अशोक से सीधा सवाल किया, " तुम क्या चाहते हो ? " 

“मेरे कमरे का प्लास्टर उखड़ गया हि उसे ठीक कराना |” 

“तो करा लो इसमें समस्या क्या है ?”

“कोई खर्चा देगा तब न |”

“खर्चा किससे लेना चाहते हो ?”

“मकान मालिक से |”

“आप मकान मालिक की क्या सहायता करते हो ?”

“कुछ नहीं |”

“मकान मालिक की कमाई क्या है ?”

“मुझे इससे कुछ लेना देना नहीं |”

“अगर तुम्हें उनसे कुछ लेना देना नहीं है तो उनके मकान में क्यों रह रहे हो ?”

“मतलब ?”

“मतलब साफ है कि अगर इस मकान में रहना है तो टूट फूट, पानी, बिजली इत्यादि का पूरा खर्चा तुम्हें उठाना पड़ेगा | इसके साथ साथ पाँच सौ रूपये अपने दादा जी को उनके खर्चे के लिए हर महीने देने होंगे |” 

अशोक  तिलमिला कर, "मैं क्यों दूँगा ?"

करण ने अशोक को खरी खोटी सुनाते हुए उसे बहुत कायल किया, “ तुम्हें ऐसा कहते हुए शर्म आनी चाहिए | जिस व्यक्ति ने तुम्हारे बाप के होते हुए तुम्हें अच्छा पढ़ाया, लिखाया उसे ही, जब वह बेबस हो गया है तो, आँखे दिखा रहे हो | लगता है तुम्हारे अन्दर इंसानियत नाम को भी नहीं रह गई है | तुम्हें तो खुद उनके कहे बिना उनके पालन पोषण तथा सेवा सुश्रा का उचित प्रबंध रखना चाहिए इसके विपरित तुम्हारी इच्छा है कि वे अब भी तुम्हारा भार उठाएँ |”  

“अभी तुम जवान हो | कमा सकते हो तथा कमा रहे हो | ये बुजूर्ग किस लायक हैं | और हाँ अगर ऐसा नहीं कर सकते तो मकान खाली करके जाओ ये अपना मकान किराए पर देकर खर्चा चला लेंगे |”

इस पर अशोक कुछ न बोला और चुपचाप उपर चला गया | इसके थोड़े दिनों बाद जब करण अपनी लड़की प्रभा की शादी का कार्ड देने ग्वालियर गया तो पता चला कि इस घटना का कुंती पर प्रतिकूल असर पड़ गया था | इसका असर उसने तब महसूस किया जब वह कुंती के घर कार्ड देने गया | करण ने कुंती के घर के दरवाजे पर खड़े होकर कई आवाजें लगाई तथा कई बार दरवाजा भी खटखटाया परंतु उसने दरवाजा न खोला | हारकर वह शादी का कार्ड कुंती के मकान के दरवाजे पर ही टाँगकर चला आया |

ग्यालियर में अपनी सास से करण को पता चला कि कुंती ने उनके पास भी आना जाना छोड़ दिया था | अशोक  के कारण अपने बाप से भी वह इतनी रूष्ट हो गई थी कि उनकी बिमारी का हालचाल भी लेना उसने गवाँरा न समझा |

कुंती की अड़ के आगे उसके लड़के सागर व उसके पति राघव की भी एक न चली | उसने उन दोनों का उस घर से नाता तुड़वा दिया तथा उनका वहाँ आना जाना बन्द करवा कर ही दम लिया | 

समय ने किसी को नहीं बख्शा फिर भला राम सहाय को कैसे बख्शता | वे स्वर्ग सिधार गए |

राम सहाय जी की तेरहवीं का दिन था | सभी करीबी रिस्तेदार ग्वालियर पहुँच चुके थे | औरतों में जन्मी एक फुसफुसाहट बैठे हुए मर्दों के बीच भी तैर गई | उस फुसफुसाहट के मद्दे नजर जय प्रकाश जी जो राम सहाय के ताऊ जी के लड़के थे, चारों और नजर घुमाने के बाद,  करण से बोले, "आपके छोटे साढू कहीं दिखाई नहीं दे रहे ?"

“दिखेंगे तो तब जब वे यहाँ होंगे |”

“क्या अभी आए नहीं ?”

“मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता |”

वेद प्रकाश ने संतोष को देखकर उसे आवाज लगाई, "अरी संतो जरा यहाँ आना |"

“हाँ चाचा जी, क्या बात है ?”

“कुंती कहाँ है ?”

“अपने घर पर होगी |”

“क्यों वह क्यों नहीं आई ?”

“मुझे कुछ नहीं पता |”

वेद प्रकाश ने फिर संत राम से जवाब तलब किया, "कुंती को क्या हुआ ?"

“चाचा जी उसकी कुछ न पूछो | वह किसी की नहीं सुनती |”

“परंतु उससे एक बार पूछना तो चाहिए कि क्या नाराजगी है जो ऐसे मौके पर भी उनमें से कोई नहीं आया |”

“मैं तो कह आया था तथा कार्ड भी दे आया था |”

“चलो एक बार हम चलते हैं |”

“चाचा जी आप ही चले जाओ क्योंकि यहाँ का इंतजाम भी देखना है |”

वेद प्रकाश जी करण को अपने साथ चलने को कहते हैं तो वह कुछ सोचकर कुंती के यहाँ जाने से मना कर देता है | सत्य प्रकाश जी भी आनाकानी करके अपना पल्ला झाड़ लेते हैं |

वेद प्रकाश जी अपने भाई विज्य प्रकाश जी के साथ कुंती को मनाने जाते हैं परंतु निष्फल वापिस लौट आते हैं |

राम सहाय जी के मरने के बाद अशोक अपने को उस मकान का मालिक समझने लगा | वह तथा उसकी पत्नि माया अपनी ददिया सास को हर कदम पर टोकने लगी | उनकी सेवा करना तो दूर उन पर कई प्रकार के लाँछन लगाने लगी |  माया का अपनी दादस के प्रति भाषा का पुट ही बदल गया | उनका नहाना धोना, रहना सहना तथा चौका चुल्हा एक कमरे तक ही सिमित कर दिया गया  अर्थात बेबस कस्तूरी मकान मालकिन होते हुए भी एक कमरे में ही गुजारा करने पर मजबूर कर दी गई | 

करण एक बार अपनी सास से मिलने गया तो उनका रहन सहन देखकर सकते में आ गया | 

“यह क्या माता जी, आप अपना खाना खुद पकाती हैं ?”

“हाँ बेटा मेरी किस्मत में ऐसा ही लिखा है |” 

“आप ऐसा क्यों कहती हैं, भगवान ने तो आपकी किस्मत बहुत अच्छी बनाई है |” 

“कैसे |”

“आपको तीन तीन पोते दिए हैं |” 

“पोते दिए जरूर हैं परंतु किसी काम के नहीं दिए | एक को पत्नि दी है वह भी पूरी चांडाल दी है |”

“क्यों उसने क्या किया है ?”

सास करण को अपना हाथ दिखाते हुए जिस पर दातों से काटे घेरे का निशान तथा नीलापन अभी भी दिखाई पड़ रह था, "ये देखो |"

आश्चर्य से, "माता जी यह क्या हुआ ?"

“आपके पोते की बहू का दिया तोहफा |”

“क्या”, आश्चर्य से करण अपनी सास का चेहरा देखता ही रह गया | 

“हाँ जी, तीन दिन पहले मैं बाथरूम में नहा रही थी | माया ने मुझे अन्दर देखकर किवाड़ खटखटाने शुरू कर दिए | साथ ही साथ अपनी जबान को बे लगाम करके खरी खोटी सुनाने लगी |” 

“सुबह सुबह घुसकर बैठ गई बाथरूम में |”

“पता नहीं बन ठन कर इतनी सुबह कहाँ जाने का इरादा है |” 

“सिर पर तो कोई है नहीं जो कुछ कहेगा |”

“रान्नी घोड़ी की तरह उड़ी फिरती है |”

“सौ बार कह रखा है कि अपने कमरे में नहाया कर |” 

“शायद पहले वाले डंडे की मार भूल गई है |” 

“मरती भी तो नहीं जो हमें चैन पड़े | बाहर निकल तूझे आज ऐसा सबक सिखाऊँगी कि आगे से हमेशा याद रहे |” 

और ज्यों ही मैं घुसलखाने से बाहर आई माया ने मेरा एक हाथ पकड़कर अपने जबड़े के सारे दाँत इस हाथ में घुसेड़ दिए | मैं किससे कहती | यहाँ मेरी सुनने वाला कौन था | दर्द के मारे बहुत देर तक रोती रही और अपने दूसरे हाथ से सहला कर उसे कम करने का प्रयाश करती रही |

अपनी सास की व्यथा की आप बीती सुनकर करण को बहुत गुस्सा आया | उसने संत  राम, आशा, अशोक तथा माया को बुला लिया | तथा अपनी सास का नीला पड़ा हुआ हाथ दिखाते हुए माया को सबके सामने अपनी ददिया सास से माफी माँगने का आग्रह किया |

इससे पहले कि माया कुछ प्रतिक्रिया दिखाती अशोक बौखला कर अपने पैर पटकते हुए कहने लगा, "सब काम हम ही गल्त करते हैं | दूसरा तो दूध का धुला है | जब देखो हमारा ही दोष निकाला जाता है | मैं तो इस रोज रोज के क्लेश से परेशान हो गया हूँ | मैं ही छत से गिरकर अपने को खत्म कर लेता हूँ | न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी |" , कहकर अशोक  झीने पर चढ़ने लगा | 

घर के सारे सदस्य एक साथ चिल्ला उठे, “अरे कोई पकडो,  अरे कोई पकडो | वह अपनी जान दे देगा | वह मर जाएगा |” 

संतोष ने भी करण की तरफ देखकर कहा कि वह ही अशोक को पकड़ ले परंतु वह निशचल खड़ा देखता रहा | यही नहीं उसने संतोष को भी हिदायत दे दी कि वह अशोक को रोकने की कोई प्रतिक्रिया न दिखाए | 

करण उस घर के वातावरण से बखूबी परिचित हो गया था तथा जानता था कि उस घर में एक से बढ़कर एक ड्रामें बाज है | वही हुआ, जब अशोक ने जाना कि उसके पीछे उसे पकड़ने कोई नहीं आ रहा तो वह उपर की छत पर जाकर बैठ गया तथा थोड़ी देर में साथ वाले की छत पर होता हुआ अपने किसी दोस्त के घर जा बैठा | 

इसके बाद करण ने माया को चेतावनी दे दी कि अगर इसके बाद उसने अपनी ददिया सास के साथ किसी प्रकार की भी कोई बदतमीजी या हरकत की तो उसे खुद हस्तक्षेप करके उन्हें सबक सिखाना पड़ेगा | उस दिन के बाद माया ने अपनी ददिया सास के साथ कोई घटिया हरकत करने का प्रयास भी नहीं किया |         

इधर संत राम जो अपने पिता जी के स्वर्गवास के बाद कभी कभी अपनी माँ से मिलने चला जाता था अपने पुत्र अशोक की चाल समझ गया कि वह पूरे मकान पर कब्जा जमाना चाहता है | 

अपने पिता जी के जीते जी संत राम ने कभी नहीं चाहा कि अपने बच्चों के साथ उस घर में रहे | करण द्वारा कई बार बाप बेटे के बीच सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाने की चेष्टा भी संत राम के अडियल रवैये के कारण रंग न ला सकी |

छः महीने के अंतराल में राम सहाय जी की पत्नि कस्तूरी देवी भी स्वर्ग सिधार गई | वे अपने पास जमा पूंजी तथा 65000/- की आवृति जमा योजना की रसीदें भी अपने पुत्र संत राम के सुपुर्द कर गई | 

दोनों की मृत्यु के बाद संत राम किराए के मकान को छोड़कर अपने पैतृक मकान में आकर रहने लगा परंतु उसके लड़के अशोक को यह पसन्द न आया तथा दोनों में झगड़े  शुरू हो गए | इस समय तक अशोक  ने ग्वालियर के तानसेन नगर में अपना मकान बना लिया था | 

एक दिन करण को अशोक का एक पत्र मिला जिससे पता चला कि अशोक अपने बाप से उसकी जायदाद में से अपना हिस्सा लेकर सदा के लिए उनसे अलग रहना चाहता है | करण ने अशोक को समझाने के लिहाज से एक पत्र लिख दिया |

चिरंजीव अशोक,

प्रसन्न रहो | आपका पत्र मिला | तुम्हारी मंशा का पता चला | मेरे विचार से जैसे आप अभी तक अपनी माता जी के ममत्व से वचिंत रहे हो आपकी माता जी ने भी आपको ममत्व न दे सकने के कारण बहुत कुछ खोया है | अब समय आया है कि आप अपने माता पिता की छत्र छाया में रहकर अपना बचपन लौटा सकते हो, फल फूल सकते हो | इस समय का सदुपयोग करते हुए, मेरे विचार से, अपने माता पिता के साथ रहना ही बेहतर होगा |  आगे आप खुद समझदार हो | जैसा विचार बनें लिखना |

आपका

करण    

अगले पत्र में अशोक ने साफ लिख दिया था कि वह किसी हालत में भी अपने माता पिता के साथ नहीं रह सकता | अतः फैसला कराने आ जाओ | इसी आशय का एक पत्र अशोक ने अपनी बड़ी बुआ जी पार्वती को भी लिखकर उन्हें बुला लिया था | उसी अनुसार सभी ग्वालियर के लिए रवाना हो गए | 

शाम ढ़लने को थी | थोड़ा थोड़ा अंधेरे का धुंधलकापन छा गया था | सत्य प्रकाश, पार्वती, संतोष तथा करण जब ग्वालियर घर पहुँचे तो वहाँ बाहर के कमरे में उनसे अनजान कई लोग बैठे थे | घर के अन्दर घर की सभी औरतें मसलन निशा, रिकी, अनीता तथा विजय की पत्नि इत्यादि बैठी थी परंतु मेहमानों को देखकर किसी ने इतनी इंसानियत नहीं दिखाई कि उन्हें अन्दर बुला लेती | न ही संत राम ने अपनी बहनों का कोई मान दिखाया | इसके विपरीत आए हुए मेहमानों में से किसी के दिल को उनके इस आचरण का कोई भारी आघात नहीं लगा क्योंकि मरने से पहले कस्तूरी देवी ने अपनी बेटियों को अपने पुत्र के बारे में इशारा करते हुए बता दिया था कि उसके जाने के बाद अगर उनका पीहर छूट जाए तो किसी प्रकार का मलाल न करें | 

यह उनके कथन की शुरूआत थी | शायद पूत के पाँव जो माँ को पालने में नजर आए थे वे बहनों को अब नजर आए थे |    

संत राम तथा उनका मंझला लड़का विजय अलग ही घुट्टी पका रहे थे | आए मेहमानों को देखकर बैठना देने की बजाय विजय ने एक अर्जी अपने बाप संत राम के हाथ में थमाते हुए बड़े ही उतावलेपन से कहा, "जल्दी दस्तख्त करो | फोर्स बुलानी है |"

करण जो विजय का उतावलापन देख कर दंग रह गया था पूछा, "क्यों आंतकवादी आ गए हैं क्या ?"

“नहीं नहीं यहाँ कुछ भी हो सकता है |” 

“क्या क्या हो सकता है ?”

“गोली भी चल सकती है |”

करण ने अपने हाथों को नचाकर दिखाया, “परंतु हम सब तो निहत्थे हैं | हमारे पास तो डंडा भी नहीं है |”

“फूफा जी आपको पता नहीं | आप यहाँ के बारे में कुछ नहीं जानते | मुझे जल्दी से थाने जाने दो |”

“मैं तुम्हे जाने से कभी नहीं रोकूंगा परंतु मैं यह भी जानता हूँ कि यह तुम्हारी हड़बड़ी केवल एक दिखावा मात्र है |”

बात बदलने के विचार से संत राम बीच में बोल पड़ा, “सिँह साहब आप जानते नहीं कि इसने (अपनी पुत्र वधु माया की और इशारा करते हुए) मेरे छोटे लड़के शशि पर रेप का इल्जाम लगाया है | वह तो क्या रेप करता अब मैं करूँगा इसके साथ रेप तब इसे पता चलेगा कि रेप क्या होता है |” 

अपने साले संत राम की बात सुनकर करण ने अपना आपा खो दिया तथा उसे डाँटते हुए लहजे में कहा, "खबरदार, अपनी जबान पर लगाम लगाओ | आपको शर्म आनी चाहिए ऐसे अल्फाज मुहँ से निकालते हुए | अगर फिर ऐसी हिमाकत की तो मेरे से बुरा कोई न होगा | समझे |”

करण के गुस्से को देखते हुए सब ऐसे शांत हो गए जैसे पानी डालने से आग शांत हो जाती है | फिर संत राम ने एक कागज करण की और बढ़ाते हुए कहा, "इसे पढ़ लो |"

करण ने लिखा हुआ पढ़ा तो पता चला कि बाप बेटे के बीच होने वाले समझौते की शर्तें थी | शर्तें पढ़कर करण ने वह कागज अशोक की और बढ़ा दिया तथा उससे कहा, “पढ़कर बताओ कि ये शर्तें तुम्हें मंजूर हैं या नहीं ?”

“हाँ मुझे मंजूर हैं |”

संत राम ने भी मंजूरी की हामी भर दी तथा अशोक को उन कागजों पर दस्तखत करने को कहा |

जब गवाह (प्रत्यादर्शी) के दस्तखत करने की बारी आई तो संत राम के दामाद विज्य कुमार जी (रिंकी का पति) ने कागज करण की और बढ़ाने चाहे तो संत राम ने बीच में ही उन्हें झटक कर एक अनजान सज्जन जो वहाँ बैठे थे उनकी और बढ़ा दिए | विज्य जी मूर्तिवत अपने ससुर की तरफ देखते रह गए | 

बाप बेटे के बीच लेन देन की कार्यवाही हो चुकी थी | जिसके अनुसार संत राम ने 150000/- रूपये देकर अशोक को अपनी जायदाद से भविष्य में किसी प्रकार के हक से वंचित कर दिया था |

शायद सत्य प्रकाश तथा करण की ससुराल उनके सास ससुर की मृत्यु के साथ ही विलिन हो गई थी | वे शाम को जैसे अन्दर आए थे रात को उल्टे पाँव घर से बाहर हो गए | क्योंकि श्री राम सहाय एवं श्री मति कस्तूरी देवी की मृत्यु के बाद उनके इकलौते लड़के संत राम ने अपने पैर पसार दिये थे अतः उस घर में अब किसी के ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं था |  गनीमत रही कि अशोक की इच्छा पूर्ति में शामिल होने तथा उसे सहयोग देने से रात बिताने के लिए अशोक के घर में तीन घंटे के लिए सिर पर छत मिल गई थी |        

अशोक के मकान में घर की सुविधा का हर सामान था | उसने एक गाड़ी भी ले ली थी | उसकी इस अप्रत्यातिश तरक्की को देखकर सभी अचम्भित थे | सभी को इसका अचरज था कि इतनी छोटी सी नौकरी में अशोक इतना सब कुछ कैसे कर पा रहा था | और एक दिन वही सामने आ गया जिसका सब को अन्देशा था कि कहीं न कहीं कुछ दाल में काला जरूर है | 

अशोक के खिलाफ हेरा फेरी का मामला निकला | अशोक अपने दो साथियों के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया | पता चला कि टाटा सर्विस सैंटर में तीनों  मिलकर घोटाला करते थे | सर्विस सैंटर में जब कोई नई गाड़ी सर्विस के लिए आती थी तो ये लोग उसके ओरिजीनल हिस्से निकाल कर डुपलिकेट हिस्से लगा दिया करते थे तथा ओरिजीनल हिस्सों को पैक करके बेच दिया करते थे |  शायद बचपन से ही बिना कोई मेहनत किए, अपनी बुआ से अच्छा खाना, अच्छा पहनना, भरपूर जेब खर्चा मिलने से अशोक की हराम की खाने की  आदत बन चुकी थी | यह उसी का असर था कि अपनी उमडती आशाओं को पूरी करने के लिए उसने बेईमानी का रास्ता अपनाया |              


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