Wednesday, September 9, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग-XXIII)

 XXIII

गुलाब के ड्यूटी पर चले जाने के दो दिनों बाद संतोष तथा उसकी सास बैठी हैं | कविता पास ही पड़े सोफे पर बैठी चादर पर कुछ काढ रही है | 

सास :- बहू थोड़ी मैदा गूंथ ले | ठाली बैठे बैठे कुछ जवे ही तोड़ लेंगे |

अच्छा मांजी कहते हुए संतोष उठकर अन्दर चली जाती है | इतने में सोमनाथ अपनी माँ के पास आकर, " क्या कर रही हो माँ ?”

“कुछ नहीं, बेटा | आ बैठ |”

“गुलाब तो चला गया उसके बिना भी सूना सूना सा लगता है |”

“हाँ बेटा आदमी से ही रौनक होती है |”

सोमनाथ चारों और इधर उधर देखकर, "गुलाब की बहू नजर नहीं आ रही | कहीं गई है क्या ?”

“अभी अभी अन्दर गई है | हम खाली बैठे थे | सोचा कि खाली बैठने से तो अच्छा है कि  कुछ काम ही कर लिया जाए अतः मैने मैदा गूंथ कर लाने को कहा है जिससे हम सब मिलकर जवे तोड़ लेंगे |” 

“हाँ ठीक है माँ | वर्ना एक अकेली औरत के लिए इतना लम्बा दिन काटना भी तो मुशकिल पड़ जाता है | एक ब्याही औरत के लिए बिना आदमी के अकेले रहना भी तो बहूत बड़ी समस्या होती है | फिर फौजी आदमी को भी मजबूरी में ही अपनी पत्नि को पीछे अपने घर वालों के भरोसे पर ही छोड़ना पड़ता है | वैसे माँ, गुलाब अब कब तक आएगा ?”

“कुछ बता कर नहीं गया कि अब उसका आना कब होगा | क्यों कुछ काम था क्या ?” 

सोमनाथ के मुहँ से गुलाब तथा उसकी पत्नि के बारे में मिठास भरे शब्दों से जानकारी लेना उसकी माँ के लिए असमंजस वाली बात थी | माँ ने आश्चर्य से कविता की और देखा तो पाया कि वह खुद भी उसी स्थिति में अपनी माँ की और निहार रही थी |

सोमनाथ ने अपनी बात जारी रखते अपनी माँ से जानना चाहा, “माँ, दिन में तो आप दुकान पर भाई ज्ञान चन्द के यहाँ चली जाती हो | तीनों बहनें स्कूल चली जाती हैं | आपकी बड़ी बहू बिमला अपने पीहर गई हुई है | ऐसे में पीछे से अगर उसे किसी चीज की जरूरत पड़ जाए तो वह क्या करेगी ?”

“मैं कोई ज्यादा देर के लिये तो जाती नहीं हूँ | फिर संतोष जब अपने सभी कामों से निफराम हो जाती है मैं तभी जाती हूँ |(कुछ सोचकर) वैसे बेटा तू कहना क्या चाहता है ?” 

“मैं तो सोच रहा था कि मेरे और गुलाब में फर्क ही कितना है | बराबर के दिखते हैं | बल्कि देखा जाए तो गुलाब मेरे से पहले नौकरी लगा था |” 

“सोम पहेली न बुझा | साफ साफ एवं सरल शब्दों में बता कि तेरे मन में क्या है ?”

“माँ मन की बात छोड़ो | मैं तो यह सोच रहा था कि गुलाब की बहू, अड़ी भीड़ में, अगर मेरे से बोल भी ले तो क्या..... हर्ज है ?” 

माँ को जैसे अपने बेटे की मंशा पहले से ही मालूम थी अतः उसके वाक्य के पूरा होने से पहले ही तपाक से बोल पडी, "ना बेटा ना, मेरे होते तो ऐसा हो नहीं सकता |”

एक औरत(माँ) अपने दामाद एवं बहुओं के बारे में कुछ अधिक न जानती हों परंतु अपनी संतान की मनोदशा के बारे में, जिसे उसने जन्म दिया है तथा जिसको कड़ी मेहनत से पाल पोस कर बड़ा किया है, सब कुछ जानती है | वह जानती है कि उसका कौन सा बच्चा किस प्रवृति का है | वह यह भी अन्दाजा लगा लेती है कि जो वह बात कर रहा है उसकी आगे चलकर उस बारे में क्या रणनिति होगी | सोम के मन की भविष्य की प्लान को भाँपते हुए ही उसकी माँ ने एकदम से  अपना फैसला सुना दिया था |

“माँ इसमें हर्ज ही क्या है”, सोमनाथ ने एक बार फिर अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हुए कहा |

“बेटा हमारा समाज इस बात को नहीं स्वीकारता कि छोटे भाई की बहू अपने जेठ के सामने मुहँ खोले | जेठ का नाता ससुर के नाते से भी बड़ा माना जाता है | और फिर ऐसी कौन सी मुसीबत आ खड़ी हुई है कि छोटी बहू का अपने जेठ के साथ बोलना जरूरी हो गया है |” 

अपनी मनोइच्छा को पूरा होते न देख सोमनाथ खिस्या कर बोला, "माँ आप तो पूरी रामायण ही बखान करने लगी | मैं तो बस यूं ही कह रहा था कि इसमें हर्ज ही क्या है |”

“बेटा अभी ऐसी तो कभी परिस्थिति आई नहीं कि संतोष को मेरे पीछे से किसी चीज की जरूरत महसूस हुई हो | मान लो अगर आगे कभी ऐसी समस्या आ भी गई तो देखा जाएगा |” 

“अच्छा माँ मैं चलता हूँ | वैसे आप संतोष को कह देना कि अगर पीछे से उसे किसी वस्तु की आवशयक्ता पड़े तो बे-झिझक मुझ से कह दे तथा किसी प्रकार की हिचकिचाहट न करे |” 

माँ अपने बेटे सोमनाथ को जाते देखती रही | कुछ सोचती रही | फिर न जाने क्यों उनका बदन सिहर उठा और इसके साथ ही कुछ बुदबुदाते हुए उनके दोनों हाथ भगवान की स्तूति में जुड़ गए |       


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