Monday, September 28, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस)

 खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस

करण की माँ बचपन में उसके भाई बहनों को एक चुडैल की कहानी सुनाया करती थी | कहानी कुछ इस प्रकार होती थी | एक चुडैल थी | वह अकेली जंगल में रहा करती थी | जब कभी कोई इंसान उस जंगल से गुजरता तो वह चुडैल उसे खा जाया करती थी |  किसी तरह उसने एक लड़के को जन्म दे दिया | उसके साथ खेलने वाला कोई न था | वह लड़का जैसे जैसे बड़ा होने लगा उसके मन में जंगल से बाहर की दुनिया देखने की इच्छा बलवती होने लगी | एक दिन इसी धुन में वह जंगल से बाहर निकल गया | उसने नजदीक के बागीचे में कुछ बच्चों को रंग बिरंगे कपड़े पहने उछलते कूदते खेलते देखा | वह मंत्र मुग्ध होकर उन्हे खेलते देखता रहा | उसे यह बहुत अच्छा लगा | अब वह अपनी माँ की नजरें बचाकर रोज उस बागीचे की तरफ जाने लगा तथा धीरे धीरे उनके साथ खेलने लगा |

एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा, “तुम कहाँ रहते हो |”

लड़के ने जंगल की तरफ इशारा कर दिया |

बच्चों को यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि वह जंगल में रहता है | अतः पूछा, "वहाँ तो जंगली जानवर रहते हैं, तुम्हे ड़र नहीं लगता ?"

“नहीं |”

“तुम्हारे साथ और कौन रहता है ?”

“मैं और मेरी माँ बस |”

उसके शब्द सुनकर सारे बच्चे बहुत आश्चर्य करके एक दूसरे का मुँह ताकने लगे | किसी को विशवास ही नहीं हो रहा था कि वे दोनों अकेले उस बीयाबान जंगल में रह रहे होंगे | लड़के की बात में कितनी सच्चाई है जानने ले लिए उसके दोस्तों ने उससे कहा, "अपना घर दिखा सकते हो ?"

पहले तो लड़का कुछ झिझका परंतु अपना हिसाब लगाकर बोला, "ठीक है जिसको मेरा घर देखना हो वह कल दोपहर के बारह बजे इसी बागीचे में आ जाना |"

असल में उसने हिसाब लगाया था कि दोपहर में बारह बजे उसकी माँ घर छोड़कर जंगल में खाना ढूढने जाती है और लगभग दो घंटे बाद लौटती है | इस दौरान वह अपने दोस्तों को अपना घर दिखाकर वापिस बागीचे में छोड़ आएगा | अन्यथा अगर उसकी माँ ने किसी को देख लिया तो वह एक दो को खाए बिना मानेगी नहीं | लड़का बच्चों को अपने प्रोग्राम के मुताबिक लिवा लाया | 

दुर्भाग्यवश उस दिन चुडैल जल्दी ही घर लौट आई | अपनी माँ को दूर से आते देख लड़का भयभीत हो उठा | अब क्या होगा | उसके दोस्तों ने भी देख लिया था कि कोई चुडैल उनकी तरफ आ रही है | लड़के ने सभी को हिदायत दी कि अगर मौत से बचना है तो चुपचाप साथ वाले छप्पर में जाकर दुबक जाऔ जिसमें हड्डियों का ढेर लगा है | क्योंकि चुडैल वहाँ कभी नहीं जाती | जान किसको प्यारी नहीं होती | सभी बच्चे चुपचाप उस बदबूदार छप्पर में जाकर दुबक गए |चुडैल खाना जमीन पर रखकर कुटिया का हर कौना सूंघने लगी तथा बोली, खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस......शूं....शूं.....  

…….. खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस| (अर्थात मुझे कुटिया में से मनुष्य की गंध आ रही है कोई मुझे मिल गया तो मैं उसे फाड़ कर खाँ जाऊँगी)

चुडैल के लड़के ने अपनी माँ को बहुत समझाया कि वहाँ कोई नहीं है तब कहीं जाकर वह खाना खाकर सोई | उसके सोने पर लड़के ने अपने दोस्तों को उस हड्डी वाले छप्पर से निकाला और वापिस बागीचे तक छोड़ आया | इस घटना के बाद वह लड़का फिर  कभी बागीचे में खेलने नहीं आया |

समय व्यतीत होने लगा | लड़का अपनी माँ की संगत में रहते रहते उसके पद चिन्हों पर चलने लगा | एकाकी जीवन जीते जीते उसने भी वही संस्कार पाल लिए जो उसकी माँ के अन्दर थे | अगर अपने दोस्तों को वह अपनी माँ का घर न दिखाता तो हो सकता था वह हमेशा के लिए उनकी संगत पा जाता और उनके साथ खेल कूद कर व्यसक होने पर एक सज्जन इंसान बन जाता तथा आगे चलकर अपनी माँ की आदतों को भी बदलने में कामयाब हो सकता था | परंतु अब उसे भी अपनी माँ की तरह इंसानों में स्वादिष्ट गंध आने लगी थी जिसके कारण वह भी एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर था |    

कहानी सुना कर करण की माँ पूछा करती थी कि बोलो तुम्हें इससे क्या शिक्षा मिलती है तो बच्चे एक साथ चिल्ला उठते थे कि सबसे मिलजुल कर रहो तथा एक दूसरे के दुख दर्द में काम आओ | जैसी संगत रखोगे वैसे संस्कार पाओगे |

इसी प्रकार जैसे एक ठूंठ अपने चारों और हरियाली तथा रंग बिरंगे फूलों को महकते सहन नहीं कर सकता परंतु हरियाली हो जाए तो कुछ कर भी नहीं सकता केवल जल भुनकर तथा अपना मन मसोश कर रह जाता है तथा कोई ऐसी युक्ति सोचने लगता है जिससे किसी तरह उन महकते हुए फूलों के पौधों को भी अपनी तरह ठूंठ बना दे | उसी प्रकार एक औरत जो भरे पूरे परिवार से सम्बंध रखते हुए भी एकाकी जीवन व्यतीत करने की इच्छुक हो, उसे तो कुछ वफादार, पालतू प्राणी जैसे इंसानों से ही लगाव रह जाता है |

ऐसे महौल में  उसे हँसी मजाक एवं उन्मुक्त विचारों वाले इंसान क्योंकर पसन्द आ सकते हैं 

कुंती जो 12-15 साल पहले अपने भरे पूरे, हँसते खेलते परिवार को तिलाँजली देकर एक एकाकी जीवन व्यतीत कर रही थी आज अचानक उसी पुरानी तरह के हँसी मजाक वाले हंसते खेलते लोगों के माहौल से घिर गई थी जो उसे गँवारा नहीं हो रहा था | उसका इतनी भीड़ देखकर दम सा घुटने लगा था | वह पहले से अपने जीजा जी एवं बड़ी बहन जी से परेशान थी जो शादी के एक सप्ताह पहले ही उसके घर में आ बसे थे | अब अपनी बहन संतोष के भरे पूरे परिवार को तीन दिन तक झेलने मात्र के विचार से विचलित हो उठी | अब कर भी क्या सकती थी | अपने लड़के सागर की शादी तो सम्पन्न करनी ही थी चाहे रोकर करे या हँसकर | परंतु उसने अपने मन में ठान ली कि अब हुआ सो हुआ भविष्य में ऐसा नहीं होना चहिए | इसको अंजाम देने के लिए कुंती ने एक युक्ति सोचकर उस पर अग्रसर होने का मन बना लिया जिससे भूलकर भी इसके बाद उसके मेहमान उसके घर की तरफ रूख न करें |

बात उस समय की है जब करण लगभग आठ वर्ष का रहा होगा | वह अपने एक रिस्तेदार की बारात में कासन-हरियाणा गया था | मई का महीना था | लू का प्रकोप था | रास्ता धूल मिट्टी से भरा था | खुले ट्रक में होने के कारण  वहाँ पहूँचने में ही सभी की नानी याद आ गई थी | बारातियों को खारे पानी में चीनी तथा दूध मिलाकर पीने को दे दिया गया | ऊपर से खाने के साथ सन्नाटा (छाछ/लस्सी जो बहुत खट्टी हो जाती है) परोस दिया गया |  बहुत से बाराती इसे झेल न पाए और उनको दस्त लग गए | खैर किसी तरह शादी सम्पन्न हुई और बारात की विदाई हो गई | परंतु यह क्या ! जिस ट्र्क में बारात विदा होकर जा रही थी उस गाँव के लोग एक साथ उस पर पत्थर बरसाने लगे | बाराती बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहाँ से निकल पाए | करण इस घटना से बहुत अचम्भित था | उसने अपने फूफा जी, श्री मंगू लाल जी से उसका कारण पूछा तो उन्होने बताया कि उस इलाके में यह रिवाज है जिसका मतलब होता है कि अब आए तो आए आगे से यहाँ अपनी शक्ल मत दिखाना | 

हाँलाकि वे ठेठ गँवार थे परंतु उन्होने अपनी मंशा साफ जाहिर कर दी थी | कोई लाग लपेट वाली बात नहीं रखी थी |

परंतु कुंती के यहाँ तो बिना किसी के जाने सभी की जडों में जहर भरने का काम किया गया | जिससे धीरे धीरे सब पर ऐसा असर हो कि वे भविष्य में इस तरफ का रूख करने की सपने में भी न सोचें |

कुंती ने अपने चहेते, वफादार एवम् पालतू प्राणी, अशोक तथा सागर को अपने मन की बात समझा दी तथा उस पर अमल करना शुरू करवा दिया | 

बड़ों का अपमान 

सागर ने शुरूआत करते हुए अपने दोनों मौसा जी को एक मिठाई का डब्बा दिखाया जो वह भाजी के रूप में मेहमानों को बाँटना चाहता था, "देखना मौसा जी कैसा रहेगा |"

डब्बे में चार बालू स्याही, चार बर्फी, चार मट्ठी तथा एक नमकीन का पैकेट को देखकर करण ने अपना मत जाहिर किया, "यह तो कुछ कम मालूम पड़ता है |"

इस पर अशोक तथा प्रषांत अपने मुखडों पर एक कटू मुस्कान लिए और एक दूसरे को देखते हुए, “अच्छा मौसा जी ठीक है कहकर बाहर निकल गए | उनकी यह अदा सत्य प्रकाश जी से छिपी न रह सकी | उनके जाने के बाद सत्य प्रकाश जी ने करण से कहा, "देखो हमें कितना बेवकूफ समझते हैं |"

“लगता तो मुझे भी है |” 

इतने में बाहर से आकर सागर ने अपने कम्प्यूटर में एक तस्वीर दिखाते हुए सत्य प्रकाश जी से कहा, "देखो मौसा जी हम भाजी का डब्बा ऐसा दे रहे हैं |"

हाँ ये अच्छा भरा भरा सा लगता है कहकर उन्होने अपनी शंका मिटाने को पूछ लिया, "तुमने पहले वह खाली सा डब्बा क्यों दिखाया था |"

अपने चेहरे पर वही कटू मुस्कान लिए, “बस यूँ ही | मम्मी जी कह रही थी कि वही ठीक रहेगा |” 

“जब मम्मी की वैसी सलाह है तो तुम क्यों बदल रहे हो ?”

इस पर अशोक व सागर दोनों ही..ही..करते हुए अन्दर कमरे में चले गए तो सत्य प्रकाश जी ने एक बार फिर अपने मन की कह दी, “भाई साहब ये बच्चे हमारी हैसियत खाली डब्बे वाली समझते हैं |”  

कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए यह सोचकर करण ने अपने साढू को सांत्वना देने के लिए कहा, "भाई साहब शांत रहना | दो दिनों की और बात है | फिर ये कहाँ और हम कहाँ |"

“नहीं नहीं मैं भी किसी से कहाँ कुछ कहने जा रहा हूँ | मैं तो इनकी दिमाग की संकिर्णता को दर्शा रहा हूँ |”

अगले दिन एक रिक्शा वाला तीस पैकेट उतार गया | लगता था उनमें कुछ उपहार थे | पूछने पर पता चला कि वे सागर अपनी तरफ से मेहमानों में बाँटेगा | अमूमन साले की शादी में उसके जीजा जी द्वारा ही उपहार देने का प्रचलन है | और इसको निभाने के लिए मनोज जी उपहार ले आए थे | वैसे भी उपहार के बारे में जीजा साले में वार्तालाप हो चुकी थी |

“जीजा जी उपहार महंगा नहीं लाना |”

“कितने तक का ले आऊँ ?”

“यही कोई 100-150 के बीच का बस इससे अधिक का नहीं लेना |”

“ठीक है मैं देख लूंगा |”

अब शायद मनोज जी को नीचा दिखाने के लिए बिना किसी को बताए सागर ने अपना उपहार 200/-रूपये के लगभग का मँगा लिया था | परंतु जब उसने मनोज जी द्वारा लाया उपहार खोलकर देखा तो देखता ही रह गया | वह बिजली की हल्की वाली प्रैस थी जिसकी कीमत लगभग 350-400 रूपये से कम न होगी | सागर खिसियाकर केवल इतना ही कह सका, “जीजा जी इतने महंगे तौफे की क्या जरूरत थी |”

“जरूरत तो थी परंतु अगर पहले से तू बता देता कि तू भी उपहार दे रहा है तो मैं न लाता |”

सागर कोई उत्तर न दे सका परंतु उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह मात खा गया था | 

घुड़चढी का समय आ गया था | मनोज जी द्वारा सागर को तैयार किया जा रहा था | जब वह तैयार हो गया तो मनोज जी को एक बार फिर नीचा दिखाने की नियत से बोला, "जीजा जी जूतियाँ तो पहना दो |"

“साले साहब आज का दिन तुम्हारा है | जो कहोगे करूंगा परंतु घुड़चढी से पहले नेग तो सारे पूरे होने चाहिए |”

“अब क्या रह गया”, सागर ने मुस्कराते हुए पूछा |

"माँ का दूध पीना", कहकर मनोज जी ने अपनी मौसी को बुलाने के लिए जोर से एक आवाज लगाई, "मौसी जी जरा जल्दी आना |”

जीजा यह क्या करते हो कहते हुए सागर बगलें झाकने लगा तथा अपने आप फटाफट जूतियाँ पहन ली | एक बार फिर सागर दूसरे को नीचा दिखाते दिखाते खुद मात खा गया था | 

सागर की घुड़चढी घोड़ी पर चढने के बजाय कार में बैठकर की गई क्योंकि बैंड बाजे वाले ने जमुना पार घोड़ी भेजने से मना कर दिया था | यह किसी और से काम न कराने का नतीजा था |

मन्दिर से बारात सीधी विवाह स्थल पर जानी थी | शादी में  अच्छनेरा से दिनेश जी तथा डौली भी आई हुई थी | उनके यहाँ लड़के का कुआँ पूजन था | उन्हें उसके कार्ड भी बाँटने थे | उनकी अपने साढू किशन से अनबन चल रही थी | दिनेश जी एवं डौली के कहने से करण ने किशन एवं स्नेह से उनका समझौता करवा दिया | 

बारातियों को ले जाने के लिए चार गाडियों का इंतजाम था | दिनेश जी अपनी गाड़ी में चले गए | जब करण तथा किशन मन्दिर से बाहर आए तो सब गाडियों में बैठ चुके थे | इतने में बिजली की कौंध की तरह अशोक आया तथा किशन का हाथ पकड़ कर ले गया | उसके बाद अशोक ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और पलक झपकते ही औझल हो गया | उसके पीछे पीछे दो और गाडियाँ अंतर्ध्यान हो गई | करण की कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा था क्योंकि किसी और को वहाँ न देखकर वह सोचने लगा था कि शायद भूल से सब उसे छोड़ गए हैं | वह मनोज जी को फोन मिलाने की सोच ही रहा था कि उसे प्रवीण की आवाज सुनाई दी, "पापा जी यहाँ आ जाओ |"

मुझे देखकर आशचर्य हुआ कि उस गाड़ी में सत्य प्रकाश जी एवं किशन भी बैठा था | पीछे मुड़कर देखा तो मनोज जी तथा पवन भी खड़ा था | पूछने पर पता चला कि  सागर के साथ अशोक, सागर का एक दोस्त तथा माया गई थी | दूसरी गाड़ी में कुंती तथा स्नेह के बच्चे थे | तीसरी में प्रभा तथा उसके बच्चे थे | अपनी गाड़ी हाँकते हुए अशोक कह गया था कि एक गाड़ी जो वहाँ बच गए थे उनको लेने बारात स्थल से वापिस आएगी | 

करण ने विचार लगाया कि सागर तथा उसकी मम्मी जी ने मनोज जी को अपने साथ न ले जाकर एक तरह से दरकिनार कर दिया है | दूसरे उन्होने अपने घर आए मेहमानों को वहीं खड़ा छोड़कर अपने जाने की जल्दी करके यह साबित कर दिया कि उन्हें उनकी कोई परवाह नहीं है | शायद वे सबसे पहले पहुँचकर अपना भावभिना स्वागत कराना चाहते थे |  

स्थिति का जायजा लेने के बाद करण ने सलाह दी कि वहाँ खड़े रहकर गाड़ी के वापिस आने का इंतजार करने से तो बहुत देर हो जाएगी क्यों न वे सभी प्रवीण की गाड़ी में बैठकर चलें |

शायद मनोज जी भी करण की तरह् अन्दर ही अन्दर अपने को दरकिनार होता महसूस कर रहे थे | इसलिए उन्होने अपनी अलग गाड़ी ले जाने की तैयारी कर ली जिससे शादी के बाद वे वहीं से अपने घर जा सकें |

अतः एक में पवन और मनोज जी बैठ गये तो दूसरी गाड़ी में प्रवीण, किशन, सत्य प्रकाश तथ करण थे |

यह तो सर्व विदित है कि जो किसी दूसरे के लिए खाई खोदता है उसमें वह खुद गिर जाता है | कुंती एवं सागर के साथ ऐसा ही हुआ | वे मन्दिर से, बिना किसी मेहमान की परवाह किए, बहुत खुश होकर सबसे पहले चल दिए | उनके मन में था कि असली बाराती तो वे ही हैं अतः सबसे पहले उनका वहाँ पहुँचना जरूरी था | परंतु वे रास्ता भटक गए और पीछे रह गए | करण जो मन्दिर से आधा घण्टा बाद में चला था सबसे पहले पहुँच गया था |   

इससे यह शिक्षा मिलती है कि घर में आए मेहमान को भगवान स्वरूप मानना चाहिए | अगर कोई घर आए मेहमान का निरादर करता है तो उसे भगवान की तरफ से अपने निरादर के लिए तैयार रहना चाहिए | अर्थात 'बन्दा जोड़े पली पली और राम बढ़ाए कुप्पा'

खुद का टेहला बिगाड़ने की कला

खैर बहुत से टेलिफोन करने तथा ड्राईवर को हिदायतें देने से कुंती की गाड़ी अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गई | उसने गाड़ी से उतरते ही अपनी निगाह उठा कर देखा तो करण  को खड़े मुस्कराता पाया | उसने आव देखा न ताव वह सड़क पर खड़े ही खड़े एक दम भभक कर बिफर उठी, 

“मुझे अभी वापिस जाना है |”

“किसी को मेरी कोई चिंता नहीं है |”

“हमारी गाड़ी में कोई मर्द नहीं था |”

“अगर रास्ते में कुछ हो जाता तो क्या होता ?”

करण तो पहले से ही जानता था कि कुंती परले दर्जे की ना समझ औरत है | यहाँ भी वह यह नहीं देख रही है कि ऐसा करके वह अपना ही टेहला बिगाड़ रही है | अगर कोई दूसरा व्यक्ति ऐसी कोशिश करता है तो सभी उस पर लानत देते हैं परंतु यहाँ तो खुद माल्किन कर रही थी उसे क्या कहा जाए |

कुंती का विकराल रूप देखकर लड़की वालों को तो जैसे साँप सूंघ गया था | दुल्हे की माँ ही बिगड़ गई है तो आगे क्या होगा यही सोचकर वे परेशान हो रहे थे | परंतु करण ने किसी तरह उन्हें आशवस्त करा दिया तथा सभी आए बारातियों को चाय नाश्ता कराना चालू कर दिया | कुंती अपना मुँह फुलाए एक तरफ ऐसे बैठ गई जैसे किसी मातम में आई थी |

अभी माहौल में रौनक लौट भी न पाई थी कि स्नेह अपनी गाड़ी से उतरते ही बहुत गुस्से तथा ऊँची आवाज में चिल्लाई, "ये टिंकू का बच्चा है | उसने ही पीने पिलाने के लिए इन्हे (किशन को) हमारी गाड़ी से उतार लिया था |"

एक बार फिर सभी का ध्यान लड़के वालों कि तरफ केंद्रित हो गया था | करण को समझ नहीं आया कि यह सब ड्रामा क्यों हो रहा था | उस समय तो करण ने स्थिति को सम्भालते हुए स्नेह को अपने घर जाकर अपनी शंका निपटाने को कह कर चुप करा दिया परंतु चेहरा तो मनुष्य के दिल का आईना होता है जो अन्दर के द्वन्द को दर्शा देता है | अब कुंती तथा स्नेह का चेहरा मिलाप खा रहा था |

नाशता खा पीकर चढत शुरू हो गई | इतना कुछ सहने के बावजूद् करण के परिवार के सभी सदस्य खुश थे | वे बढचढ कर नाचने गाने में हिस्सा ले रहे थे | परंतु कुंती अपनी युक्ति तथा सोची हुई चाल के अनुसार एक अनार सौ बिमार की कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने यहाँ आए मेहमानों के दिलों में जहर घोलने का काम शुरू कर दिया | 

“ऐं चेतना ये टिंकू (प्रवीण) कितना पी आया ?”

“अंजू यह मैनेजरों की बारात है | इसमें कूदना फाँदना थोड़े ही अच्छा लगता है |”

“अग्रवाल ऐसे नहीं करते इन्हें कौन समझाए |”

“माया यह प्रवीण ने नाचने की क्या लगा रखी है ? घोड़ी को आगे खिसकने ही नहीं देता | इसे आगे से धक्का देकर एक तरफ हटा दे |”

“प्रवीण कह रहा था उनके घर से शादी कर लो | हमें घर थोड़े ही दिखाना है हमें तो भद्र आदमी दिखाने हैं | इन जैसे गँवार नहीं |”

“खुद तो धुत्त है ही हमारी गाड़ी से उतार कर किशन को भी शराब पिला दी |”

“अशोक तो इसकी तरह सड़क पर नाचेगा नहीं और न मैं उसे नाचने दूँ |”

“ये सब यहाँ न आते तो अच्छा रहता | बुलाया नाम को सभी आ धमके |”

“यहाँ तो माल पूए पाड़ रहे हैं मुझे अपने घर बुलाकर घास खिला दी |” 

“एक संतोष है, जब से आई है उसे तो ढोलक के सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं देता |” 

“उन्होने करण से मकान बनवाने के लिए पैसे क्या ले लिए कि वह सबसे कहता फिरता हैं कि उसने मकान बनवाया है वर्ना इनके क्या बसकी था |”

इस तरह की न जाने कितनी ही घर्णात्मक बातें कुंती ने एक एक करके सभी के कानों में फूंक दी | 

पौने दस बजे बारात रायल पैलेस पहुँच गई | आरता वगैरह होने के बाद थोड़ी देर के लिए वातावरण शांत हो गया | अब खेत की रस्म पूरी होनी थी | सभी स्टेज पर बैठे थे | अशोक को दूर बैठे देख करण ने इशारा करके स्टेज पर आने के लिए कहा | किशन भी उसके साथ बैठा था | दोनों में से कोई टस से मस न हुआ | आखिर करण को गुस्सा आ गया | उसने स्टेज पर खड़े होकर वहीं से झिड़की देते हुए कहा तो किशन तो करण की गड़ी नजरों से सहम कर, आ गया परंतु अशोक पर कोई असर नहीं हुआ | क्योंकि कुंती अशोक को स्टेज पर भेजने की बजाय उसके पास खड़ी होकर उसकी पीठ सहलाने लगी थी | ऐसे लग रहा था जैसे कोई अपने वफादार पालतू प्राणी को शाबाशी दे रहा हो क्योंकि उसने उसके मन की मुताबिक कोई काम कर दिया है | 

एक बार तो करण के खून का पारा बढ गया तथा सोचा कि अभी जाकर अशोक  के गाल पर दो चपत लगा दे परंतु समय तथा स्थान की गरिमा को बनाए रखने के लिए वह खून का घूंट पीकर रह गया | काम कोई रूकता नहीं परंतु सौहार्द पूर्ण वातावरण में सम्पन्न होने का मजा कुछ और ही होता है | 

मेजबान का मुखड़ा हमेशा खिला रहे तो मेहमान को प्रफुल्लित कर देता है परंतु अगर मेहमान ही तनाव से ग्रसित दिखाई दे तो मेजबान को मेहमान नवाजी में कोई आनन्द  नहीं आता | 

सागर की शादी के मंडप में तो नजारा कुछ और ही था | जिनके मेजबान खुश थे उनके  मेहमान खुश थे | परंतु जो मेजबान और मेहमान को मिलाने वाली कड़ी थे तथा जिन्हे सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए था वे ही सबसे अधिक दुखी थे | 

यह पहेली बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं कि  'हम माँ बेटी तुम माँ बेटी चली बाग को जाएँ और तीन निम्बू तोड़कर साबुत साबुत खाएँ '| इसमें तीन पिढियों का समावेश है | बीच वाली औरत अपने आगे वाली औरत की बेटी है तो उसके पीछे चलने वाली औरत की माँ है | पहेली पूछने के हिसाब से तो वे चार बैठती हैं परंतु रिस्तों के हिसाब से वे तीन ही हैं |

इसी प्रकार कुंती का परिवार रिस्तों की धुरी होने के कारण शिव का मेहमान था और करण के परिवार के लिए मेजबान था तो शिव के परिवार के लिए मेहमान था | इसीलिए यहाँ लिखा गया है कि जिसके मेहमान खुश थे उसी के मेजबान भी खुश थे परंतु धुरी अर्थात बीच का परिवार खामोश, दुखी एवं चिंता ग्रस्त था |   

समारोह की धुरी ही बिमार थी तो समारोह का संचालन कैसे ठीक रहता | वह तो एक तरह से करण की बैसाखियों के सहारे किसी तरह घिसट रहा था |  

शादी के मंडप में मुर्दांगी छाई थी | हॉल के तीन अलग अलग कौनों में तीन बहने बैठी थी | तीनों बहने ऐसी लग रही थी जैसे उनका आपस में कभी कोई सम्बंध ही न रहा हो | सागर जो शाम को तैयार होने से पहले अपने जीजा जी मनोज से चिपका हुआ था अब अपने दोस्तों में मसगूल उन्हें भूल चुका था | 

कुंती के मुँह पर तो ताला पड़ ही गया था सागर के लिए भी मेहमान मेहमान नहीं रहे थे | वैसे भी उसके मेहमान थे ही कितने, मुशकिल से बीस | तब भी बिना किसी की परवाह किए सागर अपने रिस्तेदारों के बिना अपने दोस्तों के साथ खाने पर बैठ गया | 

हर पग पर करण को स्थिति सम्भालनी पड़ रही थी क्योंकि उसने शादी का कार्य सुचारू रूप से समपन्न करने का, श्री शिव कुमार जी को, वचन दिया था | स्थिति विस्फोटक न बन जाए इसलिए करण को ही मनोज जी वगैरह को खाने पर बैठने का न्यौता देना पड़ा |

दुल्हन के घर वाले हमेशा डरते रहते हैं कि कहीं कोई त्रुटि न रह जाए जिससे दुल्हे के परिजनों के कोप का भाजन न बनना पड़े | सभी माहौल को पहचान रहे थे | उसी डर की वजह से मेजबान बार बार आकर करण के सामने हाथ जोड़कर किसी भी गल्ती के लिए क्षमा याचना कर रहे थे |  उनका यह वर्ताव कुंती के लिए आग में घी का काम कर रहा था |   

फेरों का समय आया | पंडित जी ने वेदी सजा ली | दुल्हे को वेदी के पास आसन पर बैठने को आमंत्रित किया गया | अमूमन दुल्हा अपने रिस्तेदारों को लेकर ही आसन पर बैठता है परंतु सभी रिस्तेदारों के वहाँ होते हुए भी कुंती ने सागर को अकेले ही वहाँ बैठने का इशारा कर दिया | सागर ने भी अपनी मम्मी की आज्ञा का अनुशरण करते हुए अकेले ही आसन ग्रहण कर लिया | 

पण्डित जी ने मंत्रोचारण करने के बीच दक्षिणा माँगनी शुरू कर दी | हाँलाकि करण वहीं पास की कुर्सी पर बैठा था परंतु किसी ने भी उसे सागर के नेग पूरे कराने के लिए नहीं कहा | कुंती अपने पर्स से रूपये निकाल कर पण्डित जी को थमाने लगी | करण को तो अपना काम सुचारू रूप से सम्पन्न करना था अतः माँ बेटे की हरकतों को नजर अन्दाज करके अपने को सयमित करके वह सागर के पास जा बैठा और सारे नेग पूरे करा दिए |

जनवरी का महीना था | सुबह के पाँच बजे थे | सर्दी पूरे जोश में थी | कोहरे के कारण हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | बारात की विदाई हो चुकी थी | काफिला देहली से नौएडा जाना था | कुंती अपनी चहेतियों के साथ सबसे पहले एक गाड़ी में सवार हो गई तथा चली गई | जो रिस्ते नाते बचे थे वे शादी की विदाई के साथ ही खत्म होते नजर आ रहे थे | करण ने एक बार अपना मन भी बनाया कि यहीं से अपने घर को जाना बेहतर होगा परंतु संतोष ने एक बार फिर अपनी टाँग अड़ाकर सभी को कुंती के घर से ही विदा होने का एलान कर दिया |

दूल्हा दूल्हन लेकर सकुशल अपने घर पहुँच गया | मेहमान विदा होने शुरू हो गए | कुंती ,अशोक एवं सागर का दिमाग सातंवे आसमान पर था | कोई सीधे मुँह बात नहीं कर रहा था | करण जल्दी से जल्दी वहाँ से विदा लेकर अपने घर पहुँचना चाहता था | उसे अन्देशा था कि देरी होने से कोई बखेड़ा खड़ा हो सकता है | हाँलाकि उसके जहन में बहुत से सवाल उठ कर उसे कचोट रहे थे तथा जवाब माँगने को इच्छुक थे परंतु 'नेकी कर कुएँ में डाल' की कहावत के मद्देनजर उसने चुप रहना ही बेहतर समझा | 

जिसका डर था वही हुआ | कुंती के घर से विदा लेते समय प्रवीण ने अपने बारे में बात साफ करने के लिए अपनी मौसी से पूछा, "मौसी जी आप मेरे से जो नाराज दिख रही हो, कम से कम मेरी गल्ती तो बता दो ?"  

प्रवीण की कोई गल्ती होती तो मौसी बताती | इसलिए इधर उधर मुँह फेरकर केवल इतना बोली, "कुछ नहीं, कुछ नहीं |"

“तो फिर जब से मैं आपके घर आया हूँ आप मेरे से बात करना दो दूर मेरी और देखना भी मुनासिब नहीं समझ रही | न ही आपने मेरी नमस्ते का कोई जवाब दिया |”

इसका जवाब देने की बजाय कुंती ने सुनकर अपना मुँह कुप्पा सा फुला कर दूसरी तरफ मोड़ लिया | 

अपनी मौसी के अपने प्रति ऐसे घृणात्मक रवैये को भाँपते हुए प्रवीण ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए बड़ी सज्जनता से कहा, “तो मौसी जी आपने जो कपड़े मुझे विदा के रूप में दिए हैं मैं आपकी नजरों में उस लायक नहीं हूँ | जब मैं आपकी नजरों में इस लायक हो जाऊँगा तो अपने आप माँग कर ले लूँगा | तब तक के लिए आप इन्हें अपने पास ही रखिए |” 

शायद कुंती को तो इसी बात का इंतजार था | उसे अब जाकर उसकी युक्ति रंग लाती नजर आई थी | उसने एक पल का भी समय व्यतीत न करते हुए जोर जोर से कई उल्टी सीधी बातें करते हुए प्रवीण के हाथ से सारा सामान झपट लिया | 

संतोष के हाथ जोड़कर माँगने पर भी कुंती ने वह सामान वापिस नहीं लौटाया | करण  इस ड्रामें की पटकथा जानता था | इसलिए बीच बचाव के लिए कोई प्रयास नहीं किया और बाहर चुपचाप आकर अपनी गाड़ी में आकर बैठ गया | 

यह तो सर्व विदित है कि अगर एक अनार जहरीला है तो उसके दाने भी जहरीले होंगे | और दाने सैकडों आदमियों को बिमार करने में सक्ष्म होते है | कहने का तात्पर्य यह है कि कुंती की संगत में रहकर सागर के अन्दर भी ठूंठपन, अहंकार, गरूर एवं औछेपन का जहर फैल गया था | तभी तो विदा करते समय उसने अपने बड़े भाई प्रवीण को कहा था, "तेरे जैसे रोज हजारों निकालता हूँ |" 

उसके अन्दर थोड़ी सी भी इंसानियत होती तो वह कभी नहीं भूलता कि वह उसी आदमी के लड़के को वे शब्द कह रहा है जिसके घर के अथक प्रयासों के परिणाम स्वरूप वह इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ है |

करण को भी सागर के कहे शब्द बताए गए परंतु समय की नाजुकता को भाँपते हुए वह कुछ नहीं बोला |

इसके विपरीत कुंती यह सोचकर कि वे शब्द प्रवीण ने कहें हैं भड़भडाती हुई अन्दर से आई और झगड़ा करने पर उतारू हो गई | परंतु जब बात का खुलासा हुआ तथा उसे पता चला कि वे शब्द प्रवीण की बजाय सागर ने कहे थे तो वह एक दम शांत हो गई तथा  सागर को अन्दर जाने को कह कर अपने आप भी अन्दर चली गई |

करण का काम पूरा हो गया था | वह अब भी खुशी खुशी घर जाना चाहता था | परंतु विदा होते समय एक बार फिर माँ बेटे का व्यवहार देखकर उसका मन ग्लानि से भर गया |


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