Saturday, September 26, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (बे-लगाम)

 बे-लगाम 

अबकी बार राघवजी जब करण के यहाँ आए तो संतोष की एक पैर की एडी में दर्द था | वे उचक उचक कर चल रही थी | उनको ऐसा चलते देख राघव जी ने पूछा, "क्यों क्या हो गया ?" 

“इस एडी में दर्द रहता है |” 

“कहाँ ?”

“एडी के बीच में |”

“दिखाना कहाँ ?”

जब संतोष ने अपनी चप्पल उतार कर अपनी एडी दिखाई तो राघव जी ने उसकी चप्पल में गढा देखकर आश्चर्य से कहा, "अरे आपने तो अपनी चप्पल में भी एडी के नीचे गढा कर रखा है |"

“इसी गढे की वजह से थोडी चल भी लेती हूँ अन्यथा चलना बडा मुशकिल हो जाता है |”

“कुछ दवाई ले रही हो ?”

“डाक्टरों ने कहा है कि आपरेशन करना पडेगा |”

“आपरेशन क्यों ?”

“उनके अनुसार मेरी एडी की हड्डी बढ गई है |”

“एक बार फिर ठीक से दिखाना |”

“धीरे से दबाना बहुत दर्द होता है |”

सब कुछ देखकर राघवजी ने होम्योपैथी की एक दवा लिखी तथा उसे बाजार से मंगा लिया | दवाई संतोष को देते हुए, "लो ये दिन में तीन बार ले लेना | देखना दो दिनों में ही आप दौड़ ने लगेंगी |”

संतोष ने मजाक करते हुए कहा, "मुझे दौड़ना नहीं है बस ठीक से चलने लायक बनना है |" इस पर सभी हँसने लगते हैं |

करण ने देखा कि राघवजी अपनी बाजूओं पर रूद्राक्ष की माला बांधे हुए थे | उंगलियों में भी कई प्रकार की अंगुठियाँ पहने हुए थे | पूछने पर उन्होने बाताया कि उन सब चीजों का उन्हें अच्छा ज्ञान है तथा इनके बारे में वे बहुतों को नेक सलाह भी दे चुके हैं |

करन ने जब राघव जी से ऐसा जाना तो उनकी तारीफ़ करते हुए बोला, “इन सबके धारण करने से ही पता चल जाता है कि आप तो कई विषयों में माहिर हो ?”

अपने चेहरे पर विज्यी मुस्कान लाकर राघवजी ने कहा, "मेरा ध्येय हमेशा दक्षता ही होता है |"

करण ने थोडा झिझकते हुए,  जिससे उनके कहे का राघवजी बुरा न मान जाँए, धीरे से कहा, “आप जब ज्योतिष विद्या जानते ही हैं तो यह भी जानते होंगे कि ईशवर ने एक व्यक्ति का जो धंधा नियुक्त कर दिया है तो उसे वही अपनाना चाहिए | पहले काम के रहते अगर वह दूसरों के काम में दक्षता हासिल करके उसका उपयोग करता है तो उसका परिणाम कभी कभी बहुत भयंकर होता है |”

राघवजी ने करण की और ऐसे देखा जैसे पूछ रहे हों कि आप यह सब कैसे जानते हैं ?

फिर एक लम्बी गहरी साँस भरकर बडी शालीनता तथा बैठे दिल से कहा, “भाई साहब अकेले में समय काटे नहीं कटता | इन्हीं विषयों के अध्ययन में रूची लेकर अपना वक्त बिताने के साथ साथ कुछ समय के लिए अपनों को भुला लेता हूँ |” 

लगा राघवजी का दिल अन्दर से बहुत व्यथित होकर रो रहा था |

सुना है अच्छे लोगों को भगवान अपने पास जल्दी बुला लेता है | राघवजी के साथ भी वही हुआ | अभी  सागर महज चौदह वर्ष का था | राघवजी दो दिनों के लिए घर आए थे | आने वाले दिन की रात को अचानक उन्हें एक उल्टी आई और वे सुबह का सूरज न देख सके | उनका स्वर्गवास हो गया |

राघवजी की मौत की खबर सुनकर उनके भाई तथा एक दो रिस्तेदार तो आए परन्तु  ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे केवल उल्हाना उतारने या केवल औपचारिकता निभाने ही आए थे | क्योंकि उनमें से किसी ने भी राघवजी को अपना सगा मानते हुए कोई भी संस्कार अदा नहीं किए | उनकी तरफ के सारे रितीरिवाज संत राम को ही पूरे करने पड़े | इसके विपरीत कुंती के व्यवहार को देखकर ऐसा लगता था कि वह भी उनके आने से खुश नहीं थी | अर्थात न तो वे आना चाहते थे और न ही कुंती उनको वहाँ देखना चाहती थी | वैसे भी इस हादसे के बाद राघवके घर से कभी भी कोई भी किसी प्रकार का हाल चाल पूछने कुंती के यहाँ नहीं आया | न ही कुंती सागर को लेकर अपनी ससुराल गई | राघवजी के साथ उनकी चिता की अग्नि में जल कर सारे रिस्ते नाते भी भस्म हो गए थे |  

बाहरवीं पास करने के बाद सागर ने पिलानी इंजिनियरिंग कालिज में दाखिला ले लिया | उसे वहाँ पाँच वर्ष बिताने थे | कुंती ग्वालियर में अकेली रह गई थी | अभी तक जो थोड़ा बहुत उसके उपर दवाब था वह केवल राघवजी का ही था जो अब इस दुनिया में नहीं थे | उसे कोई काम न था | कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है | कुंती को और तो कुछ सुझा नहीं मकान के बारे में अपने भाई संत राम पर ही सौ तरह के इल्जाम लगाने शुरू कर दिए | कभी कहती मकान की रजिस्ट्री नहीं करते, कभी कहती बाल्मिकी के मौहल्ले में बसा दिया इत्यादि | उसने यह कभी नहीं सोचा कि संत राम ने उसका मकान बनवाने में कितनी मेहनत की थी | राघवजी तो महीने में एक ही बार, वह भी केवल दो दिनों के लिए ही, ग्वालियर आते थे और दो दिनों में मकान नहीं बन सकता था | एहसान मानना तो कुंती ने सीखा ही नहीं था फिर अब कैसे मान लेती | और इस तरह राघवजी के बाद जो उस पर थोड़ी पाबन्दी लगा सकता था उससे भी कुंती ने नाता तोड़ लिया | अब कुंती एक तरह से खुली लगाम की घोड़ी से बे लगाम की घोड़ी बन गई थी |  अब केवल एक अशोक ही ऐसा रह गया था जो उसका हमदर्द बन कर रह रहा था |  

अपने भाई से नाता तोड़ने के बाद भी उसका खाली दिमाग शांत न रह सका | उसे बैठे बैठे यह बात सताने लगी कि जिस मकान में वह रह रही है वह किसी और की सहायता से लेकर बनवाया गया था | उसको कौन समझाता कि लेन देन तो दुनिया का दस्तूर है | और फिर करण ने कोई अपना पैसा लगाकर तो उनका मकान बनवाया नहीं था | उसने तो उनको केवल बैंक से ऋण दिलाया था जो राघवजी ने धीरे धीरे चुकता कर दिया था | परंतु अब कुंती के दिमाग के फतूर को शांत करने वाला कोई नहीं था | इसलिए उसने अपने आशियाने को औने पौने दामों में बेचकर ही दम लिया और किराए पर रहंने लगी |

जब से राघवजी ने कुंती के सागर के प्रति लगाव का वर्तान्त सुनाया था करण ने कभी भी सागर से बात करने की कोशिश नहीं की थी | सागर को ट्रेनिंग पर गए एक वर्ष बीत चुका था | एक बार संतोष के बहुत जिद करने पर करण सागर से मिलने पिलानी चला गया | यह कुंती को गँवारा न हुआ | थोड़े दिनों बाद कुंती ने सागर से कहलवा दिया कि अब उससे मिलने कोई न आए क्योंकि कालिज वालों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है |

सागर अपनी ट्रेनिंग के बाद नौएडा में नौकरी लग गया | वहीं कुंती ने एक मकान किराए पर ले लिया |

जमानत मिलने के बाद अशोक ने ग्वालियर छोड़ दिया और एक बार फिर अपनी बुआ कुंती की छत्रछाया में आकर वफादारी दिखानी शुरू कर दी | धीरे धीरे अशोक का सब सामान, जो उसने ग्वालियर में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करके जमा किया था, बिकने लगा | मसलन उसका मकान, घर का बहुत सा सामान यहाँ तक की उसकी गाडी भी बिक गई | किसी को पता नहीं था कि नौएडा में अशोक क्या काम करता था | यहाँ तक कि उसकी पत्नि माया भी इस बारे में अनभिज्ञ थी | तभी तो पूछने पर वह साफ कह देती थी, “ पता नहीं क्या करते हैं | मुझे तो इतना पता है कि घर का खर्चा नौकरी करके मैं चला रही हूँ |” 

वास्तव में ही किसी को कुछ खबर नहीं थी कि अशोक करता क्या था | कभी तो वह कहता था कि उसका एक ट्रक चलता है जो गवालियर से मुमबई माल ले जाता है | थोड़े दिनों बाद वह कहने लगा कि अब उसके पास दो ट्रक हो गए हैं | परन्तु उसका एक भी ट्रक कभी किसी को दिखाई नहीं दिया | वह अपने निवास नौएडा से कई–कई दिन तक गायब रहता था और पूछो तो बताता था कि वह अपने ट्रकों की देख रेख में गया था परन्तु वास्तविकता यह होती थी कि वह बारी बारी से अपने किसी न किसी रिश्तेदार के यहाँ जाकर डेरा डाल लेता था और कुछ दिन रोटियां तोड़ कर वापिस आ जाता था | 

ट्रकों के चलते एक बार वह कहने लगा था कि वह एक्सपोर्ट का काम करेगा और इसी बहाने अपने रिश्तेदारों से जो पहले से एक्सपोर्ट का काम करते थे मिलने मिलाने में तथा उनके यहाँ खाना खाते खाते महीनों गुजार दीए | फिर उसकी निगाह आसाम की कोयलों की खानों की तरफ घूम गयी | मसलन काम तो उसने बहुत किए तथा सोचे भी परन्तु सब उसके ख्याली पुलाव ही निकले | उसे न कुछ करना था न किया ही | 

वह खर्च करने के नाम पर एक की टोपी दूसरे के सिर पर पहनाने में माहिर था | उसका पैसा पाने का तरीका भी अजीब था | पहले वह बैंक से ॠण ले लेता था जो कभी वापिस नहीं करता था | फिर अपने रिश्तेदारों की तरफ हाथ बढ़ा देता था | एक रिश्तेदार द्वारा तकाजा करने पर दूसरे रिश्तेदार को फांस कर पहले वाले का आधा पैसा लौटा देता था | इस तरह कई लागों का वह कर्जदार बन गया था | सोचने की बात है कि अगर उसके ट्रक चल रहे होते तो माँगने की नौबत कैसे आती | 

उसकी पत्नी ही नौकरी करके बच्चों का पेट पाल रही थी | ऊपर का खर्चा वह उन आधे पैसों के ब्याज से, जो उसने जबरदस्ती अपने नाम करा लिए थे, जब उन्होंने अपना गवालियर का मकान बेचा था, चला रही थी | अशोक ने कभी कोई पैसा माया के हाथ में नहीं थमाया | यह राज तब खुला जब माया ने एक बार सबके बीच में कहा, “न जाने इनका क्या क्या धंधा चल रहा है, घर का खर्चा तो मैं ही चला रही हूँ |”   

अर्थात कुंती से चापलूसी के बदले फ्री में खुला जेब खर्चा मिलने के कारण अशोक बेकाम और नकारा हो गया जिसका उसको बाद में, अपनी पत्नी की आत्म ह्त्या के रूप में, बहुत भारी खामियाजा भुगतना पड़ा |


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