Thursday, September 10, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग-XXIV)

 XXIV

अगले दिन प्रत्येक दिन की तरह दोपहर के बारह बजे के लगभग संतोष की सास ने नीचे से आवाज लगाई कि वह दरवाजा बन्द कर ले क्योंकि वे(सास) दूकान पर जा रही हैं | सास की आवाज सुनकर संतोष अच्छा माता जी कहती हुई नीचे आई |

“बहू चौकस रहना मैं जल्दी ही आ जाऊंगी |” 

“ठीक है माता जी | वैसे मुझे यहाँ भला किसका डर है |”

आज माँ के मन में किसी अज्ञात आशंका ने डेरा डाल रखा था | वह संतोष से तो साफ साफ कुछ कह नहीं सकती थी अतः चलते चलते केवल इतना ही कहा, “तू मेरे सामने ही दरवाजा बन्द कर ले तथा ऊपर चली जा |” 

आज माँ की बातों के कहने के लहजे से संतोष को काफी अचरज हुआ | वह इतना तो अवश्य जान गई कि आज माँ के मन में कोई भारी दुविधा है परंतु यह जानना कि वह क्या है उसके सामर्थ्य से बाहर था | खैर उसने अपने विचारों में खोए तथा सास की आज्ञा का पालन करते हुए अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया | 

ऊपर आकर अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गई | उसके करने को कुछ काम तो था नहीं इसलिये सामने मेज पर रखे गुलाब के फोटो को ही निहारने लगी | धीरे धीरे संतोष ने वह फोटो अपने वक्ष पर रख लिया तथा हाथ बढा कर रेडियो ऑन कर दिया | रेडियो पर प्रसारित हो रहे गाने ‘छोड गए बालम मुझे हाय अकेला छोड गए’ के बोल कमरे में गूंजने लगे | गाने के श्ब्दों ने संतोष के मन पर काफी गहरा असर किया | उन्हें सुनकर पहले तो संतोष की आंखे भर आई फिर मोती नीचे टपकने लगे | उसके बाद सब्र का बांध ऐसा टूटा कि वह सुबक सुबक कर रो पड़ी |           

अचानक उसे महसूस हुआ जैसे नीचे दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है | संतोष ने अपने आप को सम्भाला तथा कौन है कहती हुई ऊपर से नीचे देखने के मकसद से छज्जे पर आ गई | गली में थोड़ी दूर उसका जेठ सोमनाथ संतोष को छज्जे पर देखकर औट में होने की कोशिश करते हुए नजर आया | इससे पहले कि संतोष अपने जेठ की प्रतिकिर्या के बारे में कुछ सोच पाती दरवाजे पर फिर दस्तक हुई | उसने नीचे झांक कर देखा तो उनका किराएदार अनोखे लाल किवाड़ खोलने को कह रहा था | वह नीचे गई और दरवाजा खोल आई | 

संतोष ऊपर आकर बाहर के कमरे की चटकनी लगा कर अन्दर वाले कमरे में जाकर लेट जाती है | थोड़ी देर बाद उसे नीचे धम्म से कुछ गिरने की आवाज सुनाई देती है |

धम्म की आवाज की परवाह न करते हुए वह गुलाब की फोटो लेकर उसे निहारने लगती है | अचानक उसे फिर दस्तक सुनाई देती है | ध्यान से सुनने पर पता चलता है कि इस बार दस्तक उसके कमरे के दरवाजे पर ही हो रही थी | उसका मन एकदम काँप उठा | वह सोचने लगी कि इस भरी दोपहरी में आखिर कौन हो सकता है जो मेरे कमरे का दरवाजा थपथपा रहा है | उसे आज सुबह कहे अपनी सास के वे शब्द याद आ गए कि बहू चौकस रहना ......| फिर अभी कुछ देर पहले उसने अपने जेठ सोमनाथ को भी औट में छुपते देखा था | संतोष ने ताना बाना बुनने की बहुत कोशिश की परंतु सफल न हो सकी | इतने में दरवाजे पर फिर दस्तक हुई | 

संतोष ने साहस बटोरते हुए, "कौन है ?”

“मैं हूँ भाभी जी, अनोखे लाल |”

अनोखे की आवाज सुनकर संतोष का शरीर पसीने पसीने हो गया | वह यह सोचकर थर थर काँपने लगी कि इस शिखर दोपहरी में उसका आने का क्या प्रयोजन हो सकता है जबकी वह घर पर अकेली थी | फिर भी अपने अन्दर धैर्य का संचार करते हुए संतोष ने बुलन्द आवाज में पूछा, "क्या बात है ?”

“मेरा पानी का घड़ा गिर कर टूट गया है अतः मुझे पीने के लिए एक गिलास पानी चाहिए था |” 

संतोष अपने मन को सम्भालते हुए तथा किसी अप्रिय अनहोनी घटना से निपटने के लिए एक हाथ में अपना कपड़े धोने का सोटा अपनी कमर के पीछे छिपा लेती है तथा  दूसरे हाथ से किवाड़े की चटकनी खोलती है | सामने अनोखे लाल खड़ा था |

अनोखे लाल अपने चेहरे पर एक कटू मुस्कान लाते हुए, "भाभी जी बहुत प्यास लगी है | जैसे जान ही निकल जाएगी | जल्दी दे दो |”

“सामने से हटो, पानी बाहर रसोई में है, देती हूँ |”

 भाभी जी जल्दी करो कहता हुआ अनोखे लाल एक तरफ होने की बजाय चेहरे पर एक कड़वी मुस्कान लिए अन्दर की तरफ आने लगा | संतोष तो पहले से ही चौकन्नी तथा तैयार थी | ज्यों ही अनोखे का पहला कदम आगे बढा कि सोटे का एक भरपूर वार उसकी कनपटी पर पड़ा | वह इसके लिए तैयार न था | अतः अचानक हुए इस वार को वह झेल नहीं पाया तथा फर्स पर गिर कर तड़पने लगा | संतोष को मौका मिल गया | उसने आव देखा न ताव दो चार सोटे और जड़ दिये तथा जल्दी से पलट कर कमरे का दरवाजा अन्दर से चटकनी लगाकर बन्द कर लिया | 

यह सब इतनी जल्दी हो गया जिसकी अनोखे सपने में भी उम्मीद नहीं कर सकता था | उसने अपने को बेकसूर साबित करने के लिए बाहर से ही कहा, "भाभी जी मेरे मन में कोई पाप नहीं है | मुझे माफ कर देना | मुझे तो बलि का बकरा बनाया गया है | मेरे माध्यम से कोई और ही अपना उल्लू सीधा करना चाहता था | यह मेरी मुर्खता ही रही कि मैं बहकावे में आ गया |”

अन्दर संतोष की सांसे धौकनी की तरह चल रही थी | वह पसीने से नहा सी गई थी | उसने बाहर की आवाज को सुनने की शक्ति खो दी थी | उसे नहीं पता कि अनोखे कब नीचे गया | संतोष जब थोड़ी शाशवत हुई तो अचानक उसे अपने जेठ की याद आई | वह धीरे से उठकर अपने कमरे की बाल्किनी में छुपकर बाहर का नजारा परखने लगी | अनोखे अपनी अटैची तथा जो थोड़ा बहुत और सामान था लिए हुए गली में जाता दिखाई दिया | संतोष के जेठ ने छुपकर अनोखे को बुलाने की कोशिश की परंतु अनोखे ने उसे अनदेखा करते हुए अपनी गर्दन नीची किये हुए शायद चुपचाप निकल जाना ही बेहतर समझा | इसलिए वह बुत की तरह चलता हुआ आंखो से ओझल हो गया | 

थोड़ी देर बाद संतोष का जेठ घर में आया तथा चुपचाप ऊपर आकर अपने कमरे में लेट गया जैसे वह संतोष के साथ घटी  घटना के बारे में बिलकुल अनभिज्ञ था | संतोष का मन उनके प्रति द्वेष एवं घृणा से भर गया | संतोष सोच में पड़ गई कि वह इस घटना के बारे में अपनी सास से कोई जिक्र करे या न करे | इसी उधेड़ बुन में उसको नींद आ गई | शाम के चार बजे के लगभग एक बार फिर संतोष के कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई | वह पहली दस्तक से जो अनोखे लाल ने की थी बहुत भयभीत होकर सोई थी अतः इस दस्तक ने उसे हडबड़ाकर उठने पर मजबूर कर दिया | वह जायजा लेने के लिए कि कौन हो सकता है कुछ देर तक निस्तब्ध बैठी रही | उसकी सास ने दरवाजा न खुलते देख एक बार फिर किवाड़ खटखटाए | अब तक संटोष अपने अन्दर कुछ साहस बटोर चुकी थी अतः पूछा, "कौन है ?”

“मैं हूँ, मैं बहू, तेरी सास ! क्या बात है आज सोती ही रहेगी ?”

“आई माता जी”, कहती हुई संतोष दरवाजा खोल देती है |

“क्या बात है बहू, ठीक तो है न ?”

“हाँ माता जी मैं ठीक हूँ बस थोड़ा सा सिर दुख रहा था |” 

सास बाहए जाने के लिए मुड़ने का प्रयास करते हुए, “सिर दर्द की गोली ला देती हूँ |” 

“माता जी गोली की कोई जरूरत नहीं | हल्का सा दर्द है अपने आप ठीक हो जाएगा |” 

लीलावती ने रूककर, “खैर जरूरत हो तो बता देना मैं अभी यहीं हूँ ला दूंगी |”

संतोष को उनके बोलने के लहजे से अन्दाजा हो रहा था कि उसकी सास के जहन में कोई प्रश्न घूम रहा है | और उसका सोचना सही निकला जब उसकी सास ने पूछा, "अच्छा एक बात बता ?”

संतोष अन्दर ही अन्दर काँपते हुए, "क्या माता जी ?”    

“नीचे जो किराएदार अनोखे रहता था उसका मटका फूटा पड़ा है तथा उसका सामान भी नहीं है | क्या वह चला गया है ?” 

“माता जी, मुझे क्या पता ?”

“सोमनाथ कह रहा है कि वह जब स्कूल से आया था तो वह यहीं था | अचानक उसे क्या हो गया कि वह बिना बताए ही कमरा खाली करके चला गया |(सास पहले तो  अपने मन में बडबडाते हुए फिर संतोष से )  सुबह जब मैं गई थी तो उसका सारा सामान यहीं था तथा तुमने अन्दर से किवाड़ बन्द कर लिए थे| फिर अन्दर से सामान कैसे चला गया ?” 

“वह स्कूल से आ गया था तथा मैं किवाड़ खोलकर उपर आ गई थी | इसके बाद मुझे पता नहीं कि क्या हुआ |” 

सास कुछ सोचकर तथा अपनी तरफ से कड़ी को जोड़ते हुए, “परंतु जब मैं आई थी तो पोली((बैठक) के किवाड़ अन्दर से बन्द थे तथा सोमनाथ ने खोले थे |” 

संतोष ने अपनी सास से कह तो दिया था कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानती परंतु जब उसने देखा कि उसकी सास इस बारे में बहुत बारीकी से छान बीन कर रही है तो वह अन्दर ही अन्दर बहुत डरने लगी | 

सास अपने बेटे के कमरे में जाकर, "सोम बेटा क्या अनोखे तेरे सामने गया है ?”

सोमनथ अनजान बनते हुए तथा आश्चर्य जताते हुए, "क्या ! अनोखे चला गया ?” 

सोमनाथ यह जताने के लिये कि वाक्य में ही उसे कुछ पता नहीं, अपने बिस्तर से उठकर चौंक के जाल से नीचे झांकता है | परंतु उसके चेहरे की उड़ती हवाईयाँ माँ की तजुर्बेदार आंखो से छुप न सकी | माँ ने समझ लिया कि उसका लड़का झूठ बोलकर उससे कुछ छुपाने की कोशिश कर रहा है | 

“सोम क्या स्कूल से आकर तूने किवाड़ बन्द किए थे ?”

“हाँ माँ बन्द तो मैनें ही किए थे |”

तो क्या किवाड़ बन्द करते हुए तुझे दिखाई नहीं दिया कि अनोखे का कमरा खुला पड़ा  है ?” 

सोम झेंपते हुए, “माँ मैं बहुत थका हुआ था | मेरा इस और ध्यान ही नहीं गया |” 

संतोष अपने कमरे के दरवाजे की औट में खड़े होकर माँ बेटे के बीच हो रहे वार्तालाप को सुन रही थी | उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि वह अपने जेठ सोमनाथ की पोल खोल दे परंतु वह ठिठक कर रह गई क्योंकि उसने अपनी सास से कह दिया था कि वह अनोखे के बारे में कुछ नहीं जानती | दूसरे उसका पति घर पर नहीं था तथा वह कुछ दिनों से अकेले रह रही थी | वह यह सोचकर चुप रही कि उसके मुँह खोलने से न जाने उसके ऊपर क्या लांछन लगा दिया जाए | 

माँ अविशवास की नजरों से सोमनाथ की ओर देखती हुई वापिस संतोष के कमरे में आ गई | सास ने संतोष से कुछ कहा नहीं परंतु अब माँ ने अपना अधिक से अधिक समय संतोष के पास ही बिताना शुरू कर दिया था |

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